भोपाल। शुक्रवार को मप्र की महामहिम राज्यपाल आनंदी वेन ने एक कार्यक्रम में जिस सवाल को उठाया है, वह लाजिमी तौर पर वर्तमान परिस्थितियों में विचारणीय और कुछ करने योग्य है। जहां उन्होंने प्रदेश में महिलाओं के हर क्षेत्र में बढ़ते कदम खासकर छात्राओं के परिणामों एवं शैक्षिक गुणवत्ता की सराहना की वहीं उन्होंने शोध करने का आग्रह किया कि आखिर लड़के शिक्षा के क्षेत्र में क्यों पिछड़ रहे है। हालाकि मीडिया ने इस खबर को ज्यादा तवज्जो भले ही नहीं दी हो लेकिन यह सवाल बेहतर ढंग से सोचने और समाज की उन्नति में युवकों की भागीदारी को सुनिश्चित करने वाला है। लेकिन महामहिम की यह चिंता वास्तव में एक मां की चिंता है। जिसके लिए बेटे हो या बेटी सब समान के भाव से निकली प्रतीत होती है। मातृतुल्य महामहिम को नमन…..।
ध्यान रहे कि मार्ग अपे्रल से लेकर मई और जून माह में जब भी परीक्षा के परिणाम आते है। एक ही सुर से चारों ओर यह वाक्य गूंजता रहा है कि बेटियों ने बाजी मारी। बेटियां परीक्षा परिणाम में अव्वल। बेटियों का परिणाम बेटों पर भारी। इससे महिला सशक्तिकरण और बेटी बचाओं अभियान के लिए शुभंकर है। लेकिन इसके माध्यम से समाज में लिंग भेद की दूसरी ही परिभाषा गढ़ी जा रही है। शायद मनोवैज्ञानिक तौर पर यह विध्वंश का कारण भी बनता जा रहा है। इस बात से इंकार नहंीं किया जा सकता है कि प्रदेश में देश के अन्य प्रदेशों की तरह लिंग भेद के कारण बेटी ओर बेंटों के जन्म का अंतर रहा है। इस कारण शासन प्रशासन,समाज के साथ बुद्धिजीवियों में चिंता का कारण रहा है। पिछले कई दशको से देश में लिंगानुपात असमान रहा है। लोग बेटे की चाह में बेटियों को कभी जन्म लेने से नकार की प्रवृत्ति से ग्रसित रहे है। साथ ही जन्म के बाद भी कई परिवारों में बेटियों को बेटों की तुलना में दोयम समझा जाता रहा है। जिसका परिणाम था कि प्रकृति के साथ सामाजिक न्याय का पलड़ा एक तरफ बेटों की तरह झुकता रहा। इसी कारण समाज ने बेटियों को बचाने से लेकर पढ़ाने के लिए प्रयास तेज किए है। जिसका परिणाम सामाजिक स्तर पर बेटियों ने संरक्षण पाते ही शिक्षा के क्षेत्र में अव्वल आना सीख लिया। लेकिन बेटियों की सफलता पर इतराने वाले समाज ने यह मानकर कि बेटे शारीरिक रूप से ताकतवर होते है। अपराध की तरह बेटों का ही झुकाव होता है। बेटे अपनी राह खुद चुन लेते है। उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं है। इस कारण हमने कहीं न कहीं नये पक्षपात को जन्म दिया। चूंकि पारंपरिक रूप से पुरूष प्रथम की तर्ज पर बेटों को भले ही सामाजिक स्तर पर अलग-थलग न किया गया हो लेकिन मनो वैज्ञानिक रूप से बेटियों से इतर समझने की भूल समाज और शासन द्वारा शुरू कर दी गई। हमने अच्छा कदम उठाते हुए महिला वर्ग को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया लेकिन पचास प्रतिशत समाज चलाने की जिम्मेदारी का बंटवारा नहीं किया जा सका। बेटों को ही आज भी इसका मनोवैज्ञानिक रूप से दायित्व उठाना पड़ रहा है। इसका सीधा असर बेटों के मनो मस्तिष्क पर शुरू से ही पडऩा शुरू हो जाता है। और उनमें एक प्रकार की निरंकुशता, जो कुंठा ज्यादा होती है, पनपना शुरू हो जाती है कि यदि कुछ पाना है तो अपने ही दम पर पाना होगा। राजनीति, नौकरशाही से लेकर व्यापार तक प्रतिस्पर्धा बेटों में ज्यादा होती है, इसी उधेड़बुन में लड़के शिक्षा के दौरान पिछड़ते जा रहे है। इस पर समाज को ध्यान देने की जरूरत है। प्रकृति के न्याय सिद्धांत के अनुसार हर कोने पर हर अवसर पर प्रकृति के अनुसार समानता का व्यवहार होना चाहिए। लेकिन न तो आरक्षण में न हीं लिंग भेद मिटाने की जद्दोजहद में समाज का अनायास बंटवारा दिख रहा है। कुंठित युवा जहां शिक्षा में पिछड़ा तो उसके कुंठित मन ने अपराध या असामाजिक कार्यो में कदम बढ़ा दिए है। जिसका असर आज पूरे देश में अप्रा$कृृतिक अपराधों में दिखाई दे रहा है। बेटों जो भविष्य के नागरिक भी है राजनीति, नौकरशाही और व्यापार में कम समय में अधिक पाने की लालसा के वशीभूत भ्रष्टाचार की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते रहे है। लड़कों के पिछडऩे के पीछे लड़कों को माता-पिता द्वारा दी गई अनाधिकृत और अत्याधिक स्वतंत्रता भी कारण रही है। सामाजिक व्यवसनों में अधिकांश युवा लड़के ही फंसते रहे है। कारण किसी बाहन की ड्रायविंग सीट पर लड़कों को ही बैठना होता है। यदि हम सामाजिक रूप से पनपते नये भेदभाव को समझ सके। और मनौवैज्ञानिक रूप से युवक हो या युवती सब बराबर का भाव लाकर व्यवहार परिवर्तन करे तो स्थिति फिर से समान हो सकती है। हर वर्ग को समान समान योग्यता के आधार पर समान अवसर उपलब्ध कराने भर से इस भेदभाव को दूर किया जा सकता है। ध्यान रहे स्त्री और पुरूष किसी भी गाड़ी के दो पहिए है, जिसमें दोनों पहियों को मजबूत और ताकतवर होना आवश्यक है। कोई भी पहिया कमजोर हुआ तो गाड़ी बेमेल ढंग से चलेगी। जिसके परिणाम शिक्षा से लेकर परिवार तक देखे जाएंगे। बेटा हो या बेटी बच्चे दो ही अच्छे का नारा जीवन में पूरी निष्पक्षता से अपनाना होगा। न कन्या का दान न या पराया धन की प्रवृति हो न ही बेटे से ही वंश चलेगा की कुंठित वृत्ति। बल्कि मनुष्य ईश्वर का वरदान है, इसे उसके स्वरूप में ही स्वीकारना होगा।