Sunday, October 19

अड़ी बाजियों की अड़ी बाजी कब तक/ चुनावी साल में अड़ी बाज अड़े शिवराज को झुकाने

भोपाल। पिछले छह माह से प्रदेश भर में सरकारी महकमे से जुड़े कर्मचारियों द्वारा मौके की नजाकत को समझते हुए सरकार को झुकाने के लिए आंदोलन रूपी अड़ीबाजी शुरू की जा चुकी है। जिससे लोकशाही के स्तर पर निपटने वाले कामों में देरी से लेकर न होने तक की स्थिति निर्मित हो रही है। आखिर बोट बैंक की खाति सरकारे खुद अड़ी बाजों को पनाह क्यों देती है, जबकि प्रदेश में बेरोजगारी का स्तर चरम पर पहुंच गया है। सामाजिक स्तर पर हालात यह बन रहे है कि जिनके पास नौकरी नहीं है, वे फाकामस्ती के लिए मजबूर है। वहीं जिनको निश्चित और निर्धारित शर्तो पर रोजगार का मौका दिया गया था, वे आज अड़ी बाज बनकर सरकार को झुकाने के लिए मजबूर कर रहे है। हालाकि इसमें अड़ी बाजों की ही पूरी गलती नहीं है, बल्कि सरकारे भी चुनावी गणित को समझते हुए ऐसा माहौल बनाने लगती है, जब जनता को विकास और तोहफो के मकडज़ाल में फांसकर अपनी गोटियां जमाई जा सके।
इसे अड़ी बाजी क्यों कहा जा रहा है- यहां पाठको के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि आखिर शिक्षाकर्मी, गुरूजी, वर्ग एक दो तीन संविदा कर्मी, अतिथि शिक्षक, स्वास्थ्य कर्मी, पटवारी से लेकर कोटवार और पंचायत विभाग के कर्मचारी तक इन दिन सरकार से मनमानी मांगों को पूरा कराने का सुअवसर मानकर आंदोलन की राह पर है। सरकार मूक दर्शक बनकर इनकी मांगों को भले ही पूरा करने का अवसर खोज रही हो लेकिन इन पर सख्त रूख अपनाने का साहस नहीं कर पा रही है। सवाल यह उठ रहा है कि किसी भी लोकतंत्र में अपनी मांगों को मनवाने के लिए सत्याग्रह और आंदोलनों का सहारा लिया जाना संवेधानिक कदम है। लेकिन सोचे कि आखिर मांगे क्या है। जब कोई भी न्योक्ता किसी को नियुक्ति देता है तो उसकी नियुक्ति की निश्चित पात्रता और शर्तो का खुलासा कर दिया जाता है। जब एक बेरोजगार उन शर्तो को पूरा मानकर ही नियुक्ति प्राप्त करता है। तब उसे उन शर्तो से इतर मांगों को उठाने का अधिकार कहां से आ गया। जैसा कि अतिथि शिक्षकों का मामला है, नाम से ही विदित होता है कि स्कूलों में शिक्षकों के अभाव में निश्चित समयावधि के लिए बेरोजगार युवकों से चयन कर काम चलाया जाता है। जिसका निश्चित मानदेय उन्हें मिलता है। यदि मानदेय न दिया जाए तो शासन अन्याय कर रहा होता है। यहां अतिथि को घर का मालिक बनने का अधिकार किसी भी किताब में नहीं लिखा होता है। फिर अतिथि हर साल नियमित नियुक्ति और फलां स्थान पर ही पदस्थापना की मांग के साथ नियमित करने की मांग क्यों करते है। वैसा ही संविदा शब्द का अर्थ ग्रहण होता है। जब नियुक्ति प्राप्त करना होती है तो सारी शर्ते मान ली जाती है। लेकिन जैसे ही बेरोजगारी से रोजगार का आनंद और संगठनों का गढ़ा जाना शुरू होता है। आंदोलन की बात की जाने लगती है।
इस कुप्रथा की सरकारे भी दोषी- जैसा कि सीधा-साफ रास्ता आंदोलनों को लेकर देखा जा रहा है, इसमें सरकारों की गोलमोल नीतियों, मंत्रियों से लेकर सत्तापक्ष के पक्षकारों की नियुक्तियां की जाती है। उसी समय अंदरूनी या मौखिक तौर पर उन्हें निश्चित समयावधि में निश्चित लाभ का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है। कई बार ऐसे मामले में भी सामने आते है कि पांच हजार मानदेय वाली नियुक्ति पर अभियार्थी ने एक लाख रूपए रिश्वत या सेवा शुल्क खर्च कर दिया है। राजनीतिक आकाओं तक अपनी पैठ बना कर ही उक्त नियुक्ति प्राप्त की होती है। फिर कहावत यहीं साबित होती है कि सैयां भए कोतवाल तो फिर डर काहे को।
इसमें पिस जाती है जनता-यदि देखा जाए तो हरेक आंदोलन अन्याय के खिलाफ शुरू होता है। इस बीच मीडिया से लेकर विपक्षी राजनीतिक दल इन आंदोलनकारियों के पक्ष में उठकर खड़े हो जाते है। और उनके आंदोलन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन देेते है। सरकारे भी अवसर खोजकर ऐसे आंदोलन को पहले बढ़ावा देकर फिर तोहफे देकर वाहवाही लूट लेती है, जिसका फायदा बाद में बोटबैंक तैयार करने में देखा जाता है। दूसरी ओर इन अड़ीबाजों के आंदोलनों के चलते प्रत्येक विभाग में काम लेकर जाने वाली जनता का या तो काम होता नहीं है या फिर इतने लेट होता है कि वह अन्याय के बराबर होता है। वहीं जो युवा प्रतियोगी परीक्षाओं के भरोसे अपने भविष्य को संवारने का सपना देख रहे होते है। उनके सपने चूर होते रहते है। अधिक योग्य से कम योग्य व्यक्ति सरकारी दावत में शामिल होकर मजा लूटते है। लोकतंत्र में न्याय की अवधारणा का सब मिलकर गला घोंटते रहते है। क्या इस पर बात नहीं होनी चाहिए।