Sunday, October 19

सिर्फ हंगामों से न संवरेगा जनता का हित, कब तक न बदलेंगे व्यवस्था

प्रदीप राजपूत, अंकल, भोपाल। साल दर साल हमारे देश में घोटाले सामने आते है। घोटालों के उजागर होते ही चहुंओर विरोध और समर्थन के स्वर तेज होते-होते हंगामें तब्दील हो जाते है। इसके बाद फिर दूसरा घोटाला या बड़ी घटना सामने आ जाती है, लेकिन इस बीच जनता को जो नुकसान हो चुका होता है, उसकी भरपाई कहा हो पाती है। यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर हंगामों के चलते भले ही जनमत को प्रभावित करने वाले तर्क गढ़े जाते है और जमकर मीडिया से लेकर संसद की सड़क तक उछाले जाते है। फिर सारा हंगामा संसद में पहुंच जाता है और बहुमत के आधार पर तर्को की दुहाई देकर मीडिया में छाए हंगामों को दफना दिया जाता है। इस दौरान हंगामों की वजह गायब हो जाती है। हंगामों के लिए अवसर देने वाली घटनाएं कहीं रसातल में खो जाती है। और देश प्रदेश की जनता राजनीतिक दलों की ओर नये हंगामों को हवा देने की कवायद की ओर नजरे टिका देती है। लेकिन सुधरती है तो व्यवस्था और न ही संवर पाती है जनता की तकदीर। ऐसे में सारे राजनीतिक दल एक ही थेली के चट्टे-बट्टे नजर आते है।
यदि हम इतिहास के कुछ पन्नों को पलटे तो भारत साल दर साल घोटालों का देश बनकर उभर रहा है। हर घोटाले पर चाहे पहले विपक्ष में भाजपा हो या अब विपक्षी दल कांग्रेस व अन्य। हर हंगामें क ेखुलासे के बाद इनके द्वारा हंगामा करना ही लोकतंत्र की रक्षा और जनता के हित के लिए बाजिब बजह होती है। पिछले चार सालों से देश की जनता अच्छे दिनों की आस में घोटालों पर मीडिया बार्ताएं सुनती आ रही है। जैसे मीडिया भी चार दलों के तथाकथित ऊंची आवाज में गुर्राने वाले वक्ताओं को आमंत्रित कर घोटालों की पूरी पड़ताल कर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री मान लेती है। जनता को बरगलाने के लिए बीच-बीच में बाजार के विज्ञापन इसी शर्त पर दिखाए जाते है कि दर्शक किसी खास मनोवृत्ति के न बन पाए। कुल मिलाकर मीडिया के हंगामे यह दर्शाते है कि खाया पिया आठ आना, कांच फोड़े बारह आना की तर्ज पर खत्म हो जाते है। ्र
वहीं देश के राजनीतिक दल हंगामों को शांत करने का नया तरीका सीख चुके है। घोटाला कब कैसे हुआ और जिम्मेदारी तय करने के सिवाय यह बताने का प्रयास करते है कि क्या तुम्हारे शासन काल में घोटाले नहीं हुए। एक घर में चोरी होने पर हर किसी को चोरी करने का अधिकार मिल गया हो। वहीं राजनीतिक दलों के हंगामे इस तरह भी शांत कर देते है। कि किसी खास क्षेत्र विशेष में चुनाव जीतकर अपनी विचारधारा पर जनता की मुहर लगवा दी है। अब हम किसी घोटाले के लिए जिम्मेदार नहीं है। जैसा हंगामा मचाया जा रहा है, ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है अन्यथा जनता हमें क्यों जिताती। जीत के पीछे के कारण चाहे कुछ भी हो। इसी तरह संसद में हो रहे हंगामें भी तर्क और बहुमत की कसौटी पर टेबिल ढोककर शांत कर दिए जाते है।
यहां यह विचार करना लाजिमी है कि अमुक घटना में जिस देश की जनता को नुकसान पहुंचा है, उसकी भरपाई कैसे हो, जो कुछ देश ने खोया है, उसके जिम्मेदार कौन है। फिर घोटालों के जिम्मेदारों को सजा दिलाने की चिंता जैसे किसी को नहीं होती है। हंगामे में बात राजनीतिक प्रमुखों पर उतारकर शब्द वाणों का जमकर इस्तेमाल कर वजह घोटालों की न बताकर केवल व्यक्तिगत आरोप लगाने वाले कितने संस्कारहीन है यह साबित करने पूरी ताकत लगा दी जाती है।
कुछ इसी तरह का माहौल इन दिनों पीएबी बैंक में नीरव मोदी उद्योगपति के मामले में देखा जा रहा है। कोई यह विचार करने तैयार नहीं है कि आखिर जनता के कष्टों का जमा पैसा एक या अन्य अनेक उद्योगपतियों की तिजोरियों में कैसे पहुंचा। आखिर नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे लोग देश की जनता, देश की संपदा को चूना लगाकर कैसे रफूचक्कर हो जाते है। वे कौन लोग है जो सहायक हुए। वे कौन सी कानूनी कमजोरियां है जिनका फायदा इन से जैसे लोग उठाते रहे है। क्या हम भविष्य में ऐसे मामलों को रोकने वाले कानून बनाकर लागू कर सकते है। क्या हम इन्टरपोल और विदेशी नीतियों के जरिए इन लोगों से लूटा धन बापिस ला सकते है। क्या हम इन कानून के गुनाहगारों को सख्त सजा दिलाकर एक मिसाल पेश कर सकते है। या फिर नये घोटाले के साथ नये राजनीतिक हंगामे का इंतजार करते रहेंगे। जिम्मेदार कौन है यह सभी को जनता को, राजनीतिक दलों को लोक शाही को और किसी चैनल विशेष पर अदालत सी खोल बैठे एंकरों के लिए विचारणीय बात नहीं है।  मुझे कवि दुश्यंत की कविता की पंक्तियां याद आती है कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए। यहां नेताओं और सरकारों की सूरत नहीं बल्कि व्यवस्था की सूरत बदलना शेष है——।