Sunday, October 19

एक तीर से दो निशाने- भाव बदलते ही अंतर यानि भावांतर योजना

भोपाल। मप्र सरकार द्वारा चुनावी साल में रूठे किसानों को मनाने की नई तरकीब निकाली है। जिसे भावांतर योजना कहा जा रहा है। लेकिन अभी तक यह किसी ने नही पूछा है कि सरकार और खासकर योजनावीर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भावांतर योजना में खर्च होने वाला पैसा कहां से लाएंगे। तरकीब निकालने में महारत हासिल करने वाली यह सरकार ने कभी यह बताना मुनासिब नहीं समझा कि वे जिन योजनाओं पर खर्च कर रही है, उसमें खर्च होने वाली राशि का बजट कहां से जुटाया जा रहा है। कुछ यहीं हाल किसानों को राहत पहुंचाती दिखाई देने वाली भावांतर योजना के साथ हो रहा है। भावांतर योजना के जरिए किसानों को मंडियों में मिलने वाले भावों के अंतर को पाटने का उपक्रम करने वाली भावांतर योजना में दिखाई देता है। जिस पर मीडिया से लेकर प्रचार प्रसार में करोड़ों रूपए पहले की तरह ही सरकार खर्च करती है। योजनाओं के क्रियान्वयन तंत्र को तैयार करने मे ंकरोड़ खर्च करती है। यह योजना भी प्रशासन जिसे लोकशाही कहे उसे भ्रष्टाचार करने का फिर एक बार सुअवसर देती है। सत्ता दल के नेताओं को आगे बगाहे चेक वितरण करने का सुख प्रदान करती है। किसानों को भाव का अंतर प्राप्त करने का अवसर देती है। साथ ही जो वर्ग इस योजना से लाभांवित होता नहीं दिखाई देता है। उसे भी बड़े पैमाने पर मोटी रकम बनाने का अवसर प्रदान करती है। यानि एक योजना बोले तो एक तीर से कई निशाने एक साथ लगाए गए। हो भी क्यों आखिर यह चुनावी साल जो है। इस योजना के जरिए सरकार अपने ही दल के सन्निकट भारतीय किसान संघ को सरकार को गुणगान करने का अवसर बोनस में प्रदान करती है।
अब इस योजना का सच जानने का प्रयास किया जाए तो जिसके लिए योजना बनाई है वह है किसान। जब किसान मंडी में अनाज लेकर पहुंचा तो उसे अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिला। पहले ही उसके खाते या जेब में उपज का आधा मूल्य नकद प्राप्त हो सका। जबकि उसी समय किसान को बेटी की शादी करने, बैंकों का कर्जा निपटाने, महाजनों, कृषि से लेकर पेट भरने वाले सामानों के विक्रेताओं का ऋण चुकाना था, लेकिन उसे अपनी ही उपज का तत्काल लाभ नहीं मिला। एक दो और कई जगह तीन माह में भावांतर योजना अन्तर्गत केवल पंजीकृत किसानों के खाते में बकाया पैसा सरकार ने भेजा। इस दौरान किसान बैंक, राजस्व विभाग और अन्य विभागों के चक्कर दर चक्कर लगाकर समय बेकार करता रहा। आखिर उसे भावांतर योजना से क्या मिला। यह सवाल किसान से ही पूछा जा सकता है।
यहां सबसे ज्यादा फायदा उठाया व्यापारियों ने जो नोटबंदी और जीएसटी के कारण सरकार से नाराज चल रहा था। उसने आम दिनों मंडियों में जिस हिसाब से किसान की उपज बिकती से उससे भी काफी कम लागत में अनाज खरीदा। जरूरत पड़ी तो देश की बड़ी मंडियों आड़तियों के हाथों तत्काल डेढ़ गुने से लेकर दुगने दामों में अनाज बेंचकर लाभ कमाया। जरूरत पड़ी तो संग्रहण कर भाव तेज होने का इंतजार कर अनाज बेंचा। ऐसा हम इसलिए कह रहे है कि जो चना मंडियों में तीन हजार में बिका उसकी दाल बाजार में कहीं कम न हुई, बल्कि आसमान छूती नजर आई। ऐसे चने से दाल बनने की प्रक्रिया में दाम दुगने से ढाई गुने तक कहां से बढ़ गए। लोकशाही की वेसे ही बल्लेन्-बल्ले होती है। भावांतर योजना के झुनझुने को बजाने के कारण किसानों के मुंह सिल गए। वे मंदसौर और छतरपुर की घटना भूल कर भावांतर योजना का पैसे का इंतजार कर रहे थे। न तो प्रशासन न ही सरकार के खिलाफ विरोध के स्वर अपने आप बंद होते नजर आए है।
यहां यह सवाल उठ रहा हे कि आखिर कितनों को बड़े ही बेतरतीब तरीके से राहत पहुंचाने वाली योजनाओं से किसका भला हो रहा है। इस पर खर्च होने वाला पैसा प्रदेश के बजट से ही खर्च हो रहा है। जिसमें बहुतेरे ईमानदार लोगों के द्वारा टैक्स के रूप में चुकाया पैसा है। या सरकारों द्वारा विदेशी कंपनियों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से उधार लिए धन का पैसा है। क्या कोई भी सरकार मेहनत की कमाई पर इस तरह बर्बादी का खेल सकती है। हो तो यही रहा है। विपक्ष मोटे-मोटे तौर पर सवाल उठाकर अपनी सरकार बनाने की मांग किसानों से कर रहा है। राहत की आफत जनता पर और बोट के लड्डू राजनीतिक दलों के हिस्से में आखिर कब तक।