भोपाल। इस बार एक बार फिर होली का उत्सव जमीं पर देखने को कम मिला। यूं कहें कि जिस हिन्दू समाज द्वारा होली का उत्सव मनाया जाता है। उसमें भी उत्साहीनता देखी गई। होली में सामाजिक उत्सव धर्मिकता की जगह धार्मिक परंपरा निर्वाह ज्यादा दिखाई देने लगा है। या इसके अलावा जमीं पर फूहड़ता और गुंडागर्दी जैसा माहोल आम लोगों को होली के सदभाव, उत्साह और भारत की उत्सव धर्मिता वालो गुण से दूर करने वाली साबित हो रही है।
होली का उत्सव एक दूसरे मोबाइल, सोसल मीडिया और टीवी चेनलों के माध्यम से शुभकामनाएं देने तक सीमित दिखा। टीवी पर ब्रज सहित कई स्थानों पर धार्मिक आधार पर मनाई जाने वाली होली के रूप में दिखाई दिया। छोटे शहरों कस्बों में होली की उमंग गायब दिखी। बच्चे परीक्षाओं के कारण होली के रंगों से महरूम हो रहे है। आम आदमी घरों में पकवानों के स्वाद के साथ टीवी के प्रोग्रामों या न्यूज चैनलों के हल्के फुल्के तुकबंदकार कवियों के सम्मेलनों में उलझा रहा। एक से कई चैनलों पर देश के अब राजनीतिक परिदृश्य में समा चुके दो महानुभावों मनोज तिवारी और कुमार विश्वास के रंगों से सराबोर होने का सुख लेता रहा। किसी ने पिक्चर देखी तो किसी ने पुराने मैचों की हाईलाइट्स देखकर समय काटा। इस बीच होली के अवकाशों का मजा बोरियत भरे समय में तब्दील होकर निकाला गया। अलबत्ता सड़कों पर हुरियारों की धूम रही, जो अखबारों के फोटो और खबरों का माध्यम बने। लेकिन इन हुरियारों पर सामाजिक एकता, सदभाव और उत्सवधर्मिता गायब हो रही है कारण अधिकांश हुरियारे शराब के नशे में धुत होकर उत्साह कम दिखा रहे थे, बल्कि समाज के दूसरे बर्ग को धमकाने जैसा काम अवश्य कर रहे थे। ताकि समाज के अन्य तबके टीवी से ही चिपके रहे। ऐसे में त्योहार शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बन चुके है। या किसी धर्म विशेष की पद्धति में रंगे उत्साह का माध्यम जिसमें अन्य समाजों के लोगों को बिना कहे ही प्रवेश बंद हो जाता है। ऐसे में देश में सामाजिक सदभाव, एकता और मित्रता के भावों को समेटने वाले त्योहार भी धर्म के चश्में में रंग चुके है। और अब धर्म यानि मजहब एक प्रक्रिया भर है, एक परंपरा निर्वाह भर है। जिसे निभाते चलो और अपने घर में बैठकर सुकून महसूस करते रहों। बाकी सबकुछ गायब सा हो रहा है।