Tuesday, October 21

फीके पड़ते होली के रंग

भारतीय सनातन संस्कृति का मुख्य त्यौहार होली के रंग अब फीके पड़ते जा रहे हैं समय का बदलाव कहे या आधुनिकता की खुमारी ने अपना प्रभाव इन त्योहारों पर भीडाल दिया हैं पढ़ाई का बोझ और नए युग के साजो सामान में व्यस्त आज का युवा अपनी संस्कृति से कटता जा रहा हैं और परिवार में होने वाले धार्मिक अनुष्ठानो को या तो वो रूढ़िवादिता मान रहा हैं या पुरानी सभ्यता मानकर उससे दूर हो रहा है |

इन त्योहारों के प्रति लोगो की उदासीनता का एक कारण छोटे होते परिवार भी हैं जहा अमूमन पहले एक घर में सात से दस बच्चे हुआ करते थे आज वहा मुश्किल से एक से दो बच्चे दिखाई देते हैं उसमे भी पढ़ाई संस्कृति ने उन्हें घर से दूर कर दिया हैं जिससे वह अपने परिवार के संस्कारो से भी कट रहा हैं |

दुसरा महत्वपूर्ण एक कारण और हैं पहले जहा संयुक्त परिवार हुआ करते थे आज वह संयुक्त परिवार एकल परिवार बाद में सिमट कर रह गया हैं | कही – कही तो उस एकल परिवार में भी दादा -दादी का कोई स्थान नहीं बचा हैं इसका असर भी हमारी संस्कृति पर साफ़ देखा जा सकता हैं |

हम जिस होली उत्सव की बात कर रहे हैं वह होती जीवन में उत्सव और उमंग भरती थी छोटे बड़े का भेद खत्म करती थी ऊंच नीच का भेद खत्म करती थी रगो की बौछार से नारी – परुष सब एक से दिखाई देते थे अब ये सव बाते किताबो तक ही सिमित होती दिखाई दे रही हैं क्योँकि अब औपचारिकता भर दिख रही हैं रंगो की जगह गुलाल पर आ गए और वह गुलाल भी सिर्फ उन तक सीमित हो गए जिनसे हमारा परिचय हैं नहीं तो पहले यही रंग उन सब को रंग देता था जिनसे हमारा कोई परिचय नहीं हैं अब वही रंग समाज को जोड़ने का काम करता था यदि हम वात करे सामाजिक समरसता की तो इससे बड़ा कोई त्योहार का उदाहरण नहीं हो सकता |

होली के रंग की भी अलग निराली छटा रही हैं जिसे हम बसंत उत्सव कहते हैं उस बसंत उत्सव ने सभी को प्रभावित किया हैं फाग के रंग से कोई नहीं बच सका हैं कवि ने अपने तरह की कल्पना की हैं और रंगो में भी फाग के रंग भर दिये हैं पग पग पर होली के रंग भी निराले होते चले गए कही लठमार होली कही लड्डू की होली कही फूलो की होली कही मिड्डी से होली तो कही रंगो की होली ने मानव सभ्यता में रंगो का उत्साह भरकर उनकी नीरसता को दूर करने का पराया किया हैं पर अब यह सीमित जगह पर ही सिमट कर रह गया हैं और होली के रंग फीके पड़ते दिखाई दे रहे हैं |