वडोदरा। पांच-सात पीढ़ी से हम यह काम करते आ रहे हैं। हमारे बाप दादा भी यही काम किया करते थे। हम भी यही काम कर रहे हैं और हमारे बच्चे भी यही करेंगे। यह काम हमें पंसद नहीं लेकिन हमारे समुदाय पर इस काम का ठप्पा लग गया है कि अब हम कोई दूसरा काम कर भी नहीं सकते। ये शब्द है नाडियाद में रहने वाले 55 वर्षीय हीराबापा के ये शब्द बोलते-बोलते उनका गला रूंध जाता है और आंखों से श्मशान जैसी अजीब सी खामोशी टपकने लगती है।
जी हां, हीराबापा सहित उनका पूरा समुदाय श्मशान की राख छन्ने का काम करता है। समुदाय का कोई नाम नहीं है, लेकिन इन्हें राखधोया के नाम से पहचाना जाता है। यह समुदाय पूरे देश में है। दरअसल ये लोग श्मशान की राख से पैसे या सोने-चांदी के गहने खोजने का काम करते हैं। राख में से जो भी मिल जाता है, उसी से परिवार का भरण-पोषण होता है। फिलहाल गुजरात में राखधोया समुदाय के लगभग 100 परिवार अलग-अलग ग्रुप में राज्य भर में फैले हुए हैं। अलग-अलग रहना इनकी मजबूरी भी कि एक ही जगह से कई लोगों का पेट नहीं भर सकता। ये तस्वीरें नादियाड जिले की हैं। श्मशान के अलावा इनका बाहरी दुनिया से कोई वास्ता नहीं। वह इसीलिए कि इनकी रोजी रोटी जीवित मनुष्यों पर नहीं बल्कि उनकी लाशों पर निर्भर है। ये लोग अक्सर श्मशान के आसपास ही झोपडियां बनाकर रहते हैं। शवों के जलने के बाद यह बोरियों में राख एकत्रित करते हैं और नदी तालाब में उसे बारीकी से छानते हैं और शवों से सोने-चांदी के जले हुए कण या सिक्के बीनते हैं। हीराबापा के बताए अनुसार सोने-चांदी के गहने बहुत कम ही मिलते हैं। हां जले हुए कुछ सिक्के अवश्य मिल जाते हैं सोने-चांदी के गहनों के बारे में बात करते हुए हीराबापा बताते हैं कि मुझे आज तक सोने का कोई गहना नहीं मिला। हां एक बार मुझे चांदी की अंगूठी जरूर मिली थी। वे बताते है ंकि अब हालात बदल गए हैं।