उज्जैन। किसी भी स्त्री के लिए वह क्षण बहुत गर्व का होता है, जब वह मां बनती है। माता के गर्भ में नौ महीनों तक शिशु का पालन-पोषण होता है। मेडिकल साइंस के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान माता भोजन के रूप में जो भी ग्रहण करती है, उसी का अंश गर्भस्थ शिशु को भी मिलता है। यही बात हिंदू धर्मग्रंथों में भी बताई गई है। गरूड़ पुराण में शिश के माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक का स्पष्ट विवरण दिया गया है। गुरूड़ पुराण में भगवान विष्णु ने अपने परम भक्त और वाहन गरूड़ को जीवन मृत्यु, स्वर्ग नरक, पाप-पुण्य, मोझ पाने के उपाय आदि के बारे में विस्तार से बताया है। गरूड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि शिशु को माता के गर्भ में क्या-क्या कष्ट भोगने पड़ते हैं और वह किस प्रकार भगवान का स्मरण करता है। गर्भस्थ शिशु के मन में क्या-क्या विचार आते हैं, ये भी गरूड़ पुराण में बताया गया है।
गरूड़ पुराण के अनुसार, स्त्रियों में ऋतुकाल आने से संतान की उत्पत्ति होती है। ऋतुकाल में तीन दिन स्त्रियां अपवित्र रहती हैं। ऋतुकाल में पहले दिन स्त्री चांडाली के सामन, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान तथा तीसरे दिन धोबिन के समान रहती है। इन तीन दिनों में नरक से आए हुए जीव उत्पन्न होते हैं।
ईश्वर से प्रेरित हुए कर्मों से शरीर धारण करने के लिए पुरूष के वीर्य-बिंदु के माध्यम से स्त्री के गर्भ में जीव प्रवेश करता है। एक रात्रि का जीव कोद सूक्ष्म कण पांच रात्रि का जीव बुदबुद बुलबुले तथा दस दिन का जीवन बदरीफल बेर के समान होता है। इसके बाद वह एक मांस पिंड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है। एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं। चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवे महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढककर माता के गर्भ में घूमने लगता है। माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा, मूत्र आदि के स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है। वहां कृमियों के काटने से उसके भी अंग कष्ट पाते हैं। इससे वह बार-बार बेहोश भी होता है। माता जो भी कड़वा, तीखा, रूखा, कसैला भोजन करती है, उसके स्पर्श से शिशु के कोमल अंगों को बहुत कष्ट होता है।
इसके बाद शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथ पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं। वह इधर-उधर हिल नहीं सकता। जिस प्रकार से पिंजरे में पक्षी रहता है, उसी प्रकार शिशु माता के गर्भ में रहता है। यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की स्तुति करने लगता है। सातवें महीने में उसे ज्ञान प्राप्ति होती है और वह सोचता है कि इस गर्भ से बाहर जाने पर कहीं ईधर को न भूल जाऊं। ऐसा सोचकर वह दुखी होता है और इधर-उधर घूमने लगता है। सातवें महीने में शिशु अत्यंत दुख से वैराग्य मानसिकता के उसका पालन करने वाले भगवान विष्णु का शरणागत होता हूं। गर्भस्थ शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि मोहित होकर देहादि में और अभिमान कर जन्म मरण को प्राप्त होता हूं। मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा पीकर चले गए। मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं। इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करूंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं। फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है मैं महादुखी विष्ठा व मूत्र के कुएं में हूं और भूख से व्याकुल इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं। हे भगवन् मुझे कब बाहर निकालोगे। सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं। इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है। गरूड़ पुराण के अनुसार, फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता, क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरकादि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दुख से व्याकुल हूं, फिर भी दुखरहित हो आपके चरणों का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करूंगा।