Friday, September 26

चुनाव का नीतियों की जगह व्यक्ति केंद्रित होना गलत

देश की राजनीति में शीर्ष तक को लपेट चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी आंदोलनों के बीच पिछले साल तक उम्मीद थी कि 2014 के चुनाव पिछले लोकसभा चुनावों के उलट वास्तविक सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर लड़े जाएंगे। नीतिगत बहस-मुहबिसे उनके केंद्र में होंगे और संकीर्णताओं सांप्रदायिकताओं की कोख से निकलने वाले दुर्भावना के उत्पादक मुद्दे हाशिए पर चले जाएंगे। कई प्रेक्षक आशावान थे कि इससे लोगों को सब्जबाग दिखाकर या उद्वेलित कर चुनाव जीतने की मंशा रखने रखने वाली पार्टियों और नेताओं पर बुरी बीतेगी, पर अब घड़ी की सुइयां उलटी दिशा में घूमती दिखने लगी हैं।
क्या आश्चर्य कि इससे उन सारी पार्टियों का खोया हुआ चैन और करार वापस लौट आया है, जो कभी न कभी कहीं न कहीं, मतलब, केंद्र में नहीं, तो राज्य में ही सही, सत्ता का सुख लूटकर अपनी अनीतियों का जनविरोध बेपरदा कर चुकी हैं। इसीलिए वे अपनी पहचान को किन्हीं नीतियों से जोडऩे में असुविधा महसूस करती हैं, तथाकथित सुप्रीमो के नाम से जानी जाती हैं और उन्हीं के सच्चे झूठे आभामंडल की छाया में खुद को सुरक्षित मानती हैं। क्षेत्रीय पार्टियों को छोड़ भी दें जो ऊंच-नीच से भरे समाजों की विडंबनाओं, संकुचित स्वार्थों व दूषित चेतनाओं के घालमेल से जन्मती हैं और पुराने कबीलों की तरह उनमें एक खासा असरदार सरदार और शेष छुटभैए होते हैं, पर खुद को राष्ट्रीय व प्रगतिशील लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक बताने वाली पार्टियां भी खुश हैं कि उन्होंने चुनावी मुकाबले को अच्छी व बुरी नीतियों की बजाय करिश्माई व्यक्तित्वों के बेतुके टकराव में बदलने में सफलता पा ली है। खुद की सबसे बड़ी बात यह कि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने भी केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को उसकी रीति नीति के आधार पर कठघेरे में खड़ी करने का सुनहारा मौका सामने होने पर भी नरेंद्र मोदी को आगे करके उनके और राहुल गांधी के व्यक्ति-केंद्रित मुकाबले का रास्ता अपनाया है। लालकृष्ण आडवाणी गलत नहीं कह रहे थे कि मोदी को आगे करते ही मनमोहन सिंह को अपने किए-धरे की जवाबदेही से छुट्टी मिल जाएगी। अब नतीजा सामने है। व्यक्ति परिवर्तन से सत्ता व व्यवस्था परिवर्तन का भ्रम रचने वाले आभासी मुद्दों की लकीरें इतनी बड़ी हो गई हैं कि इस चुनाव को पिछले चुनावों की राह जाने से रोक पाना कठिन है। समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व जैसे पवित्र संवैधानिक संकल्पों की दिशा में प्रयाण तो वैसे भी किसी पार्टी को नहीं सुहाना था, क्योंकि इस संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य को उन सबने मिलकर ऐसे सैन्य पूंजीवादी या कि कारपोरेट लोकतंत्र में बदल दिया है, जो और किसी का नहीं, तो अंरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का तो गुलाम है ही। मगर बदले माहौल में उन्हें गरीबी, दमन शोषण आदि के खात्मे की दिखावटी चिंताओं को भी व्यवस्था बदलने की लफ्फाजी का तकिया बनाने की आजादी मिल गई है। तभी तो गैर बराबरी बढ़ाने व रोजगार घटाने वाले विकास के शोर के बीच बहस हो रही है कि किसकी छाती 56 इंच की है? सपा के आजम भाजपा के भावी वजीर-ए-आजम को सीने व छाती में फर्क की तमीज सिखा और कह रहे हैं कि मुकाबला तो मरदानों के बीच होता है। मुलायम सिंह यादिव आह्वादित हैं कि सपा ने उत्तरप्रदेश में भीड़ जुटाने में जनाने मोदी का पछाड़ दिया है। मोदी राहुल को शहजादा कहकर संबोधित करते रहे हैं, तो राहुल न सिर्फ उल्लू बनाने वाले की इज्जत न करने की तालीम दे रहे हैं, बल्कि खुद को सम्राट अशोक और मोदी को औरंगजेब बता रहे हैं।