अभी हाल ही में तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मुलाकात क्या की, चीन बुरी तरह भन्नाया हुआ है। वैसे, यह कोई पहला मौका नहीं है, जब दलाई लामा किसी अमेरिकी राष्ट्रपति से मिले हों। सच तो यह है कि वे दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों से हमेशा मिलते रहते हैं, पर चीन ऐसी मुलाकातों पर संतुलित प्रतिक्रिया ही देता आया है। ओबामा से भी 2011 में वे मिल ही चुके हैं, पर चीन ने तब भी कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। लिहाजा, अब क्या हुआ, जो चीन भन्ना गया है? यह मामला कुल मिलाकर चोर की दाड़ी में तिनका जैसा ही है। चीन को पता है कि अमेरिका उसे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। जापान, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया व वियतनाम को मिलाकर अमेरिका एक ऐसा गुट बना रहा है, जो चीन को नियंत्रित करेगा, उसे अपने घर तक सीमित रखेागा। दुनिय में उसका प्रभाव नहीं बढऩे देगा। यूं अमेरिका यह भी चाहता है कि भातर भी उसके इस गुट में शामिल हो। यह बात अलग है कि हम ने अभी ऐसा कोई संदेश नहीं दिया है, जिससे अमेरिका को कोई राहत मिल और चीन की पेशानी पर बल पड़े। अलबत्ता, अभी हाल ही में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अरूणाचल प्रदेश में जाकर जब चीन को ललकारा था, कहा था, वह विस्तारवाद की मानसिकता से बाज आए, तब अमेरिका के कूटनीतिज्ञों ने जरूर माना था कि इस वर्ष मोदी भातर के प्रधानमंत्री यदि बन गए, तो वे तो जरूर अमेरिका के साथ खड़े हो जाएंगे। चीन फिलहाल इससे तो चिंतित नहीं है, लेकिन अमेरिका उसे घेरने की जो राणनीति बना रहा है, उसने उसे जरूर बहुत परेशान कर दिया है।
उसे लगता है कि अमेरिका दलाई लामा का अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है। यह इसलिए कि तिब्बत का मुद्दा अब भी पेचीदा है। भारत ने यह जरूर मान लिया है कि चीन तिब्बत का अंग है, पाकिस्तान भी यही मानता है। मगर, दुनिया के अन्य देश ऐसा नहीं मान रहे हैं। सब यही मानकर चल रहे है ंकि 1955 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था। उल्लेखनीय यह भी है कि 1955 से ही भातर में निर्वासित का जीवन जी रहे दलाई लामा भी अब तिब्बत की आजादी नहीं चाहते। वे तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि चीन तिब्बत को धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता प्रदान करे।
सही है कि भातर में तिब्बत की निर्वासित सरकार भी कायम है, मगर उसका मकसद भी तिब्बत को चीन के चुंगल से आजाद कराना नहीं है। ऐसे में अमेरिका यदि कुछ करना भी चाहे तो कर नहीं पाएगा। तिब्बत और चीन का जो विवाद है, उसका एक पक्ष भारत भी है। यह इसलिए कि हम ने दलाई लामा को शरण दी है। इसलिए भी कि तिब्बत की निर्वासित सरकार भी हमारे ही देश में कायम है। तब हम यदि तिब्बत को चीन के एक हिस्से के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो कुछ हो सकता था, तो भी कुछ हो सकता था, जब दलाई लामा आजादी की मांग पर कायम रहते, पर अब यह स्थिति नहीं है।
इसलिए चीन को भी इन परिस्थितियों को समझना चाहिए था और उसे बराक ओबामा और दलाई लामा की मुलाकात पर कठोर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए थी। यदि हम गौर से देखें, तो पाएंगे कि तिब्बत के मसले पर चीन निरंतर हठधर्मी बरत रहा है। दुनिया के सभी देश दलाई लामा का सम्मान करते हैं, मगर चीन उनको अपमानित करने का कोई मौका नहीं जाने देता। कई बार वह उन्हें चीन का गद्दार भी कह चुका है। इतना ही नहीं, उसने दलाई लामा को कमजोर करने के लिए तिब्बतियों का दूसरा धर्मगुरू भी खड़ा किया। हां, उसे मान्यता किसी ने नहीं दी, न तिब्बतियों ने, न बौद्धों ने और न ही विश्व के अन्य देशों ने भी। जरूरत इस बात की है कि चीन अब चालाकियां बंद करे और दलाई लामा से बात करके तिब्बत को जरूरी धार्मिक सांस्कृतिक आजादी दे, मगर इस बात को चीन समझने को तैयार ही नहीं है।
उसको कौन समझाए कि बहुत से तिब्बती दुनिया के दूसरे देशों में विस्थापितों का जीवन जी रहे हैं। भारत में तो उनकी अच्छी-खासी तादाद है और चीन द्वारा तिब्बत को हड़पे हुए भले ही एक युग ही बीत गया हो, लेकिन तिब्बतियों का राष्ट्रप्रेम अभी जिंदा है। इसीलिए तो चीन के हुक्मरान जब किसी दूसरे देश में जाते हैं, तो तिब्बती उन्हें काले झंडे दिखाने की कोशिश करते हैं। संभार राजएक्प्रेस