वो थी एक गुडिया वो ऐसे कूद रही थी मानो प्रकृति का स्वतंत्र पंक्षी धर्म, जाति और बंदिशों से परे बाल मानोहर लिए लगती थी बहुत भोली जैसे हो किसी आंगन की चिडिय़ा वो थी एक गुडिया जिसकी नहीं थी कोई धार्मिक पहचान धम्र की बंदिशों से परे चेहकती फिरती इस तरह जैसे हो किसी आंगन की चिडिय़ा वो थी एक गुडिया। प्रदीप अंकल