Monday, September 22

सैफईवादी समाजवाद की सीमाएं

1016142_167891800058312_724261217_n

सत्ता और सिद्धांतों के बीच क्या सिर्फ छत्तीस का ही रिश्ता हो सकता है? क्या हाथों में सत्ता के आते ही मूल्यों का तिरोहित हो जाना नियति है? क्या सत्ता उन मूल्यों की स्वभाव से ही विरोधी है, जिनके बहाने राजनीति और समाज संघर्ष करता है? उत्तरप्रदेश के समाजवादी आंदोलन व उसके मौजूदा रहनुमाओं के कारनामों को देखकर ये सवाल कुछ ज्यादा ही गंभीर हो जाते हैं। हैबरमॉस ने जिस लोकवृत यानी पब्लिक स्फीयर की कल्पना की थी, उसी लोकवृत्त में इन मूल्यों को बढ़ावा मिलता रहा है। यह लोकवृत्त ही है, जो नए तरह की संघर्ममयी चेतना विकसित करता रहा है। उसी चेतना की संघर्षशील परिणति सत्ताएं होती हैं। इस लिहाज से सत्ताओं से यह उम्मीद करना बेमानी नहीं होती कि वे मूल्यों का पालन करें। समाजवाद चूंकि सबके विकास की अवधारणा पर आधारित है, लिहाजा उससे उम्मीद बाकी विचारधाराओं की तुलना में कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है, मगर सैफई महोत्सव के बहाने उत्तप्रदेश की सत्ता ने जो किया, उसे देखकर समाजवाद से लगी उम्मीदों का विचलन यदि शुरू हो जाए, तो हैरत नहीं। जिन्होंने भारतीय राजनीति में समाजवाद का तप:काल देखा है, वह पीढ़ी अब भी न सिर्फ जिंदा है, बल्कि सक्रिय भी है। उस पीढ़ी के लिए सैफई महोत्सव वैचारिक वज्रपात से कम नहीं है, तो जिस पीढ़ी ने समाजवाद को सिर्फ वैचारिक किताबों में पढ़ा है, वह अगर समाजवाद की फिल्मी चाशनी में डूबी परिभाषा गढऩे लगे, तो हैरत इस पर भी नहीं होनी चाहिए। याद आता है, मधु लिमये का श्रद्धांजलि समारोह। 1995 के जाड़ों के दिन। समाजवाद 1989 के बाद एक बार फिर संघ परिवार के नजदीक आ रहा था। जार्ज फर्नांडीज मधु लिमये के प्रिय लोगों में एक रहे हैं। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को भी श्रद्धांजलि समारोह में बुलाया था। जार्ज खुद संचालन कर रहे थे, हर वाक्य से पहले उनका गला भर्रा जाता। इसी दौर में मुलायम सिंह को पुकारा गया। मायावती के सहयोग से मुलायम उन दिनों यूपी की दूसरी बार कमान संभाले हुए थे। उन्होंने अपना एक दुखड़ा सुनाया। वे कई महीनों तक मधु लिमये से मिल नहीं पाए थे। सिर्फ इसलिए कि उत्तरप्रदेश में सरकारी पाठ्य पुस्तकों की कीमतें बढ़ गई थीं। दूसरे शब्दों में कहें, तो सत्ता प्रतिष्ठान ने बढ़ा दी थीं। मधु लिमये को इसकी जानकारी अखबारों के जरिए मिली थी। उनके लिए सत्ता और विपक्ष का समाजवाद अलग-अलग नहीं था, लिहाजा वे पाठ्य पुस्तकों की कीमतों का बढऩा बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। मुलायम को बुला भेजा। उन्होंने अपनी जगह पर रामगोपाल को भेज दिया और उनको मधु लिमये की डांट सुननी पड़ी। मधु लिमये की श्रद्धांजलि सभा में यह किस्सा बयान करते वक्त मुलायम सिंह यादव का गला भर आया।अब जरा सैफई महोत्सव को देखिए और उसके खिलाफ उठती आवाजों के प्रतिवाद में मुलायम और अखिलेश के तर्कों को सुनिए। तब यह सोचना मुश्किल हो जाएगा कि मुलायम तब सही थे या अब सही हैं। अगर तब के मुलायम की सत्ता प्रतिष्ठान के इस्तेमाल के मौजूदा तरीके से उनके स्वभाव की तुलना करेंगे, तो निश्चित तौर पर मुलायम आपको गलत ही नजर आएंगे। मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़त मामूली पॉलीथिन के नीचे कहर ढाती सर्दी को काटने को मजबूर हैं। उनके पास खाने की भी ठीक सुविधा हांसिल नहीं है, पर उत्तरप्रदेश के समाजवादी शहंशाह को सैफई महोत्सव में करीब सौ करोड़ रूपए खर्च कर देने में हिचक नहीं होती। मुलायम खुद को राममनोहर लोहिया का प्रखर अनुयायी मानते नहीं थकते। लखनऊ में लोहिया पार्क बनवाकर उन्होंने खुद को उनका सबसे बड़ा अनुयायी साबित करने की कोशिश की, पर वे 1963 की लोकसभा की उस बहस को भूल गए, जिसे लोहिया और आचार्य जेबी कृपलानी ने शुरू किया था। तीन आने बनाम तेरह आने की वह बहस संसद ही नहीं, संसदीय विमर्श की धरोहर है। उस वक्त लोहिया ने साबित किया था कि महज तीन आने रोजाना में भारत का आम नागरिक जीने को मजबूर है, जबकि प्रधानमंत्री पर 25 हजार रूपए प्रतिदिन खर्च होते हैं। लोहिया और कृपलानी का सवाल था कि गरीब देश के प्रधानमंत्री की यह शाहखर्ची क्यों? तब के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने इसका प्रतिवाद किया था। यह बात और है कि नेहरू ने लोहिया के सामने न सिर्फ घुटने टेक दिए थे, बल्कि मोरारजी की तरफ से उनसे माफी भी मांगी थी, पर लोहिया के आज के अनुयायी मुलायम सिंह सैफई महोत्सव को कलाकारों का सम्मान बताते नहीं थक रहे हैं। उनके हिसाब से सैफई महोत्सव कलाकारों का सम्मान है और यह अनुचित नहीं। याद कीजिए, अमर सिंह को समाजवादी पार्टी से निकाले जाने को। तब बलिया से विधानपरिषद सदस्य और मौजूदा सरकार में मंत्री अंबिका चौधरी ने अमर सिंह पर आरोप लगाया था कि उन्होंने समाजवादी पार्टी में फिल्म वालों को बुला-घुसाकर समाजवाद को तहस-नहस कर दिया है। अमर सिंह का कारपोरेट और फिल्मी समाज से मिलकर तैयार समाजवाद सपा-कार्यकर्ता और नेताओं को तक खटकने लगा था। सता से पांच साल दूर रही सपा को तब अपनी मुक्ति समाजवाद की उसी पथरीली राह पर चलने में नजर आने लगी थी, जहां तपती गर्मी थी, फिल्म वालों का साथ नहीं था। मुलायम तो खुद अमर सिंह को निकाल नहीं पाए, पर जब रामगोपाल यादव ने अमर सिंह को निकाला तो लोहिया का समाजवाद ही याद किया गया। इसी से प्रेरित होरक अखिलेश यादव ने 2011 की तपती गर्मियों में साइकिल यात्रा शुरू की।