Tuesday, September 23

कहीं नौकरशाही केजरीवाल को अपने सांचे में न ढाल ले

राजनीति के पारंपरिक तौर-तरीकों, तकाजो और मुहावरों से आम आदमी पार्टी का परहेज इस तरह खत्म होगा, शायद ही किसी ने सोचा हो। अरविंद केजरीवाल ने बाकायदा जनमत संग्रह कराकर दिल्ली में वीवीआईपी संस्कृति के खात्मे का दावा करने वाली ईमानदार सरकार बनाई, तो स्वाभाविक ही था कि नाना प्रकार की समस्याओं से पीडि़त आम लोग उन्हें तारनहार मान उनके कौशाम्बी स्थिति निवास का रूख करते, पर अरविंद उनकी अपेक्षाओं का बोझ एक दिन भी नहीं ढो पाए और यह टका-सा जवाब देने पर उतार आए कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिससे पलक झपकते सब ठीक कर दें।
पता नहीं, ऐसा कहते हुए केजरीवाल को याद था या नहीं कि न सिर्फ दिल्ली, बल्कि पूरे देश की जनता इस आप्त-वाक्य को थोड़े हेर-फेर के साथ अभी थोड़े दिनों पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और इनसे बहुत पहले 1977 में बड़े ही अरमानों से गठित जनता पार्टी की सरकार के मुखिया मोरारजी देसाई के मुखारविंदो से सुन चुकी है।गांधीवादी मोरारजी ने तो एक कदम और आगे बढ़ यहां तक कह डाला था कि सारे चुनावी वादे पूरे करने हेतु नहीं होते। फिलहाल, केजरीवाल द्वारा इस आप्त-वाक्य की पुरावृत्ति से समझा जा सकता है कि हमारी राजनीति में ऐसा कुछ अवश्य है, जिससे अपने सत्ता में आने को सौ मर्जों की एक दवा या कि हजारों समस्याओं के हजारों तालों की एकमात्र चाभी बताने वाले नेता सत्ता में आए बिना जान ही नहीं पाते कि जादू की जो छड़ी पलक झपकते सब कुछ ठीक कर सकती थी, वह तो उनके पास है ही नहीं। अब यह केजरीवाल पर ही निर्भर है कि जिस पारंपरिक राजनीति भाषा के इस्तेमाल से उन्होंने अपने लिए प्रथम ग्रासे मक्षिका पात: की स्थिति उत्पन्न कर ली है, आगे खुद को उससे अलग करते हैं या उसी के कीचड़ में लथपथ हो जाते हैं।
वैसे, दूरर्शिता यह थी कि वे जुल्म के चार और दिन, सितम के चार और दिन जैसी कोई बात कहकर अपनी सदाशयता में लोगों का भरोसा अक्षुण्ण रखते। समझते कि उन्होंने अपने सहयोगियों को लाल बत्ती व सुरक्षा के साथ अहंकार से बचने का जो मंत्र दिया है, वह बेअसर हो जाएगा, अगर वे खुद को उससे ऊपर मान बैठेंगे। शिकायतों के निस्तारण हेतु प्रणाली गठित करने की बात कहकर उन्होंने बाद में जनता से जो दस दिन मांगे, उसी दिन मांग सकते थे। अपने घर पर लोगों की भीड़ जुटना पसंद नहीं था, तो वहां आए लोगों से विनम्रतापूर्वक कह सकते थे कि वे आगे से एसी समस्याएं लेकर उनके कार्यालय में ही पधारें।मगर, जरा सोचें कि वे ऐसे कड़वे जवाब के लिए विवश हुए तो थोड़ा दोष हमारी उस मानसिकता का भी है, जिसके तहत यूं तो हम सब कुछ सहते जाते हैं, पर किसी ओर से रहबरी की क्षीण सी भी उम्मीद दिख जाए तो उसे अपनी अनेक भारी भरकम अपेक्षाओं के बोझ तले दबाने लगते हैं। हममें कौन है, जिसे बेहतर शासन व समाज नहीं चाहिए? मगर, हममें से ज्यादातर लोगों की इच्छा रहती है कि वह बेहतर शासन और समाज कोई और बनाकर दे दे और हमें उसके लिए हाथ-पांव भी न हिलाना पड़े। यूं तो छाती पर सवार खलनायकों का हम कुछ नहीं बिगाड़ पाते, मगर कोई नायक मिल जाए, तो उसके नायकत्व की कसौटियां इतनी कड़ी कर देते हैं कि उसका जरा-सा भी ऐब बर्दाश्त नहीं होता।