वर्ष 2014 का राजनीतिक आगाज जिस अंदाज में हुआ है, उसने पूरे देश में कौतूहल का केंद्र दिल्ली में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी की कार्यशैली है। उसके नेता जिस शैली में सरकारी फैसले कर रहे हैं, जिस तरह विधायक मंत्री पैदल, मैट्रो, बसों, टैंपो, रिक्शा से जनता के बीच या दफ्तर जा रहे हें, उन सबसे ऐसा परिदृश्य बन रहा है, मानो भारत की स्थापित राजनीतिक शैली को ध्वस्त कर ऐसी जनशैली हावल होने को आतुर है, जिसकी मजन प्रतीक्षा कर रहा था। दूसरे रूप में देश के बड़े वर्ग के अंदर कौतूहल नरेंद्र मोदी को लेकर इस वर्ष के पूर्व से ही पैदा हो गया था, जो लगातार सुदृढ़ होता दिख रहा है। मोदी स्थापित सत्ता के प्रतिनिधि होते हुए भी उसके खिलाफ हुंकार भरते देश भर में रैलियां कर रहे हैं और उनमें आती भीड़ ऐसा दृश्य पैदा कर रही है, जैसा इसके पहले हमने नहीं देखा। राजनीति में हमने पहली बार 2013 में ही ऐसा कौतूहल देखा, जो 2014 तक विस्तारित है। इस वर्ष अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए यह कौतूहल और उसके पात्र उस पर किस तरह का प्रभाव डालेंगे, यह देश भर की रूचि का विषय बन गया है। हालांकि बीच-बीच में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपने अंदाज से कौतूहल पैदा किया। मसलन सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लडऩे से रोकने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने वाले अध्यादेश को रद्दी की टोकरी में फेंकने वाला उनका बयान। उनके बयान का असर केंद्र सरकार पर हुआ और अध्यादेश के साथ संबंधित विधेयक वापस हो गया। इस समय वे कांग्रेस के नेताओं की जिस तरह से क्लास ले रहे हैं, भ्रष्टाचार विरोधी कदमों का आगे बढ़कर श्रेय लेने और उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने की कवायद कर हरे हैं, उससे यह साफ हो रहा है कि उन्होंने नेतृत्व को अपने हाथों में लेने का मन बना लिया है। लोकसभा चुनाव में संभवत: उनका चेहरा ही आगे होगा।देश भर की जमीन से निकलती आवाजें बता रही हैं कि राहुल गांधी का इरादा नेक हो सकता है, पर उनकी कोशिशें वैसे कौतूहल पैदा करने में सफल नहीं हो रहीं, जिनसे वे भारी संख्या में लोक आकर्षण का केंद्र बनें। बावजूद इसके सबसे बड़ी पार्टी के अघोषित-घोषित नेता होने के कारण चुनाव और उसके बाद की घटनाओं की दिशा उनकी भूमिका से अवश्य प्रभावित होगी।समय अपने अनुसार सतत गतिमान रहता है। जो घटनाएं घटती हैं, उनके साथ कोई न कोई समय जुड़ा होता है, पर उन घटनाओं से समय की गति अप्रभावित रहती है। समय रूक नहीं जाता, नए साल या दिन के लिए। समय से घटनाएं तो प्रभावित होती हैं, पर घटनाओं से समय नहीं, इसलिए 2013 ने जो अंदाज दिया, 2014 का आगाज उसी से हुआ और आगे भी इसका असम कायम रहेगा। तो जो कौतूहल है, वह जनमानस को किन राजनीतिक धाराओं की ओर जाने को प्रेरित या मजबूर करेगा, चुनाव के पूर्व और उसके बाद हमें और कितने अंदाजों से दो-चार होना पड़ेगा? ये ऐसे प्रश्र हैं, जिनका उत्तर तलाशना जरा कठिन हो गया है।छह फरवरी 2013 से जब से नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से संवाद शुरू करते हुए प्रयाण किया, तब से पूरी राजनीति पक्ष या विरोध, उनके इर्द-गिर्द घूमने लगी। हम नरेंद्र मोदी के विचारों, कार्यशैली से असहमत हों या सहमत, मगर यह स्वीकारना होगा कि आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी एक राज्य के नेता ने करीब पूरी राष्ट्रीय राजनीति को अपने समर्थन और विरोध की धुरी में परिणत कर दिया है। इस नाते पहले से ही साफ हो चुका था कि यह चुनाव अब तक के सारे चुनावों से एकदम अलग चरित्र वाला होगा। 2013 के अंत में हुए विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के प्रभाव से जितने भी प्रभावित थे, परिणामों ने राहुल गांधी एवं कांग्रेस को आघात दिया, तो भाजपा व देश में मोदी का असर ज्यादा सघन हुआ। इस परिपे्रक्ष्य में विचार करें, तो कांग्रेस व राहुल जहां निराशा और उसके उबरने की छटपटाहट से नए साल में कदम रख रहे हैं, वहीं मोदी व भाजपा बढ़े हुए उत्साह के साथ। 29 दिसंबर को झारखंड की राजधानी रांची में मोदी की वर्ष की अंतिम रैली में उमड़ी भीड़ की प्रतिक्रिया ने स्वयं उनका और भाजपा का मनोबल बढ़ा दिया है, पर दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा में 28 स्थान और करीब 30 प्रतिशत मतों से राजनीति में प्रभावी दस्तक देने वाली आमआदमी पार्टी ने दोनों के लिए चिंता पैदा की है। कांग्रेस के लिए ज्यादा इसलिए कि पहले केजरीवाल दूसरी चुनौती दिख रहे हैं। मोदी, भाजपा तथा आप, केजरीवाल में अंतर है। मोदी स्थापित सता के भाग हैं, इसलिए एक सीमा से ज्यादा वे लोगों को अपने पक्ष में उत्साहित करने वाली घोषणाएं व कार्य नहीं कर सकते। आप और उसके नेता सत्ता में प्रवेश कर रहे हैं। दिल्ली में बिजली और पानी की दर कम करने उन्होंने अपना समर्थन बढ़ा लिया है। संभार राजएक्सप्रेस