
दिल्ली के जामिया नगर का बाटला हाउस इलाका। एक संकरी गली में एल-18 मकान की 65 सीढ़ियां चढ़ने के बाद तीसरे फ्लोर पर वो फ्लैट है, जहां 19 सितंबर 2008 की सुबह दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल और इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों के बीच एनकाउंटर हुआ था। 13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुए सिलसिलेवार धमाकों के ठीक एक हफ्ते बाद हुए इस एनकाउंटर में इंडियन मुजाहिदीन के दो आतंकी मारे गए थे। इस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो गए थे।
तब दिल्ली पुलिस ने दो आतंकियों के भागने का दावा भी किया था। इनमें से एक आरिज खान भी था, जिसे 2018 में नेपाल से गिरफ्तार किया गया था। सोमवार को दिल्ली के साकेत कोर्ट ने आरिज खान को फांसी की सजा सुनाई है। जब अदालत फैसला सुना रही थी, तब एल-18 में सन्नाटा पसरा था। यहां ज्यादातर फ्लैट्स पर ताले लटके हैं। जिन फ्लैट में लोग रह रहे हैं, वे भी एनकाउंटर के बारे में बात करने से कतराते हैं। दरवाजा खटखटाने पर एक अपार्टमेंट से एक महिला बाहर निकलती है, लेकिन एनकाउंटर का जिक्र होते ही सॉरी कहकर भीतर चली जाती है।
यहां आबादी बेहद घनी है। मकानों के बाहर निकले छज्जे हर बढ़ती मंजिल के साथ एक-दूसरे के करीब आते जाते हैं। बीच में बिजली के तारों का जाल बिछा है। यहां अपने कामों में लगे लोग बाटला हाउस एनकाउंटर के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं। एनकाउंटर के दिन यहां मौजूद रहे सामाजिक कार्यकर्ता शारिक हुसैन कहते हैं, ‘उस एनकाउंटर के बाद यहां खौफ का माहौल पैदा हो गया था। सबसे ज्यादा वे स्टूडेंट्स डरे हुए थे जो बाहर से आकर यहां रहकर पढ़ाई कर रहे थे। वे फ्लैट छोड़कर यहां से वापस जा रहे थे। तब हमने उन्हें समझाया था कि डरने की जरूरत नहीं है, सब ठीक हो जाएगा।’
बाटला हाउस एनकाउंटर शुरू से ही सवालों के घेरे में रहा है। मानवाधिकार कार्यकर्ता इस एनकाउंटर को फर्जी ठहराते रहे हैं। शारिक हुसैन कहते हैं, ‘पूरे हिंदुस्तान में इस एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग उठी थी, लेकिन जांच कभी नहीं हुई। इससे भारत के मुसलमानों और जामिया नगर के लोगों को ठेस पहुंची है। इतने बड़े तबके की मांग को अनसुना कर दिया गया, उससे भी डर का माहौल बढ़ा।’
शारिक कहते हैं, ‘मेरे रोज के निकलने का रास्ता यहीं से है। जब मैं यहां से गुजरता हूं तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मन में सवाल कौंधता है कि उस दिन आखिर क्या हुआ होगा।’ यहां के लोगों की खामोशी पर वे कहते हैं, ‘कैमरे के सामने कोई बात नहीं करता। लोगों में खौफ है कि अगर वो इस बारे में बोलेंगे तो उनके साथ भी कुछ हो सकता है।’ जामिया नगर की ही एक संकरी गली में एक मकान की चौथी मंजिल पर बने फ्लैट में अब्दुल रहमान अपने परिवार के साथ रहते हैं। उत्तर प्रदेश के पीडब्ल्यूडी विभाग से रिटायर्ड अब्दुल रहमान की याद्दाश्त अब साथ नहीं देती, लेकिन उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है।
अब्दुल रहमान को भी बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन तीन महीने बाद ही छोड़ दिया गया। 2017 में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। उन पर फर्जी दस्तावेजों के जरिए इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों को फ्लैट किराए पर दिलाने के आरोप थे। उनका बेटा जिया उर रहमान, जो उन दिनों जामिया से बीए की पढ़ाई कर रहा था, अभी भी गुजरात की साबरमती जेल में बंद है। पुलिस के रिकॉर्ड में वो इंडियन मुजाहिदीन का आतंकी है जिस पर दिल्ली धमाके के अलावा और भी कई आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप है।
अब्दुल रहमान कहते हैं, ‘जब मेरे बेटे का नाम एनकाउंटर के साथ जुड़ा तो मैं उसे खुद थाने लेकर पहुंचा। पहली बार पुलिस ने कुछ नहीं किया। जब मैं दोबारा उसे थाने लेकर गया तो उसे और मुझे दोनों को गिरफ्तार कर लिया।’ रहमान कहते हैं, ‘गिरफ्तारी के बाद मुझे नौकरी से निलंबित कर दिया गया था, लेकिन भारत की ही अदालत ने इंसाफ किया और मुझे बरी किया। बाद में मुझे पूरी सैलरी और पेंशन मिली। मेरा बेटा भी भारत की अदालत से बेगुनाह साबित होगा।’
वे कहते हैं, ‘जब मैं अपने बेटे को थाने लेकर गया था तो सोचा नहीं था कि वो इतने लंबे समय तक जेल में रहेगा। उस पर आतंकी होने का दाग है। हमें भरोसा है कि अदालत इस दाग को मिटा देगी।’ पत्रकार अफरोज आलम साहिल उन दिनों जामिया के ही छात्र थे। उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा और एनकाउंटर में मारे गए आजमगढ़ के रहने वाले आतिफ और साजिद की पोस्टमार्टम रिपोर्ट हासिल की थी।
अफरोज आलम साहिल उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘घायल इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को अस्पताल ले जाया गया था। वो जुमे का दिन था। हल्की बारिश भी हुई थी। लोगों ने नमाज में इंस्पेक्टर की सेहत के लिए दुआ की थी, लेकिन अस्पताल में मोहन चंद शर्मा की मौत हो गई।’
अफरोज बताते हैं, ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उनकी मौत गोलियों से लगे घाव से अधिक खून बहने की वजह से हुई थी। उनकी मौत पर हमेशा सवाल उठते रहे। ये कभी पता नहीं चल पाया कि उन्हें कौन सी गोली लगी थी। जब उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था तो शर्ट सामने से साफ थी। बाद में पुलिस ने बताया कि उन्हें सामने से ही दो गोलियां लगीं थीं।’
लेकिन, अदालत ने पुलिस की तरफ से पेश सबूतों को सही मानते हुए अब आरिज खान को मोहन चंद शर्मा की मौत का दोषी माना है। इस एनकाउंटर को पुलिस और अदालत में हमेशा सही ठहराया जाता रहा है। अफरोज सवाल करते हैं, ‘दिल्ली पुलिस ने पहले कहा था कि आरिज छत के रास्ते भागा है, लेकिन तब एल-18 के चारों तरफ खाली प्लॉट थे। बाद में पुलिस ने कहा कि वह सीढ़ियों के रास्ते भागा था। इस एनकाउंटर पर हमेशा सवाल उठते रहेंगे, जिनके जवाब शायद कभी न मिलें।’
अदालतों ने बाटला हाउस एनकाउंटर को सही पाया
बाटला हाउस एनकाउंटर को लेकर भले ही स्थानीय निवासी और कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता सवाल उठाते रहे है। लेकिन NHRC से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक एक तरह से इसे क्लीन चिट दे चुके हैं। 2009 में एक एनजीओ Act Now For Harmony and Democracy ने एनकाउंटर की पुलिस थ्योरी पर सवाल उठाते हुए दिल्ली हाई कोर्ट में अर्जी दायर की। हाई कोर्ट के निर्देश पर NHRC ने जांच की और 30 पेज की रिपोर्ट कोर्ट में जमा की।
NHRC ने अपनी रिपोर्ट में कहा -‘हमारे सामने उपलब्ध तथ्यों के आधार पर नहीं लगता कि पुलिस की ओर से मानवाधिकार का उल्लंघन हुआ है। ’26 अगस्त 2009 को हाई कोर्ट ने NHRC की क्लीन चिट को स्वीकार करते हुए न्यायिक जांच का आदेश देने से इनकार कर दिया। सितम्बर 2009 में हाई कोर्ट के इस आदेश को एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। लेकिन, 30 अक्टूबर 2019 को तत्कालीन CJI केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये कहते हुए न्यायिक जांच से इनकार कर दिया कि ‘हजारों पुलिसकर्मी मारे जाते हैं। न्यायिक जांच के आदेश से पुलिस फोर्स के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।’
इसी बीच साकेत कोर्ट ने 30 अप्रैल 2013 को पुलिस की ओर से पेश सबूतों और दलीलों को सही ठहराते हुए एक आरोपी शहजाद को उम्रकैद की सजा मुकर्रर की थी। और अब 15 मार्च 2021 को साकेत कोर्ट ने ही आरिज खान को फांसी की सजा सुनाई है।
वहीं उस समय दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल का नेतृत्व कर रहे और ईडी के पूर्व निदेशक रहे करनल सिंह ने अपनी किताब बटला हाउस- एन एनकाउंटर दैट शॉक द नेशन में लिखा था कि एनकाउंटर पर उठे सवालों ने न सिर्फ पुलिस का मनोबल गिराया बल्कि इस आतंकवादी संगठन के खिलाफ पुलिस की जांच के भटकने का खतरा भी पैदा किया।