देश दुनिया। अमरीका की अनेकों छोटी-बड़ी बातों में से एक विशेष बात यह है कि वहां भिन्न-भिन्न मूल के लोग रहते हैं, जो दुनिया के अनेक देशों से आकर बस गए। यूरोप से बड़ी संख्या में लोग आए तो अफ्रीका से दासों के रूप में लोगों को लाया गया। कालांतर में एशिया महाद्वीप के चीन व भारत सहित कई देशों के लोग आए और अमरीका को अपना घर बना लिया। अमरीका की धरती पर प्रवासन के अलग-अलग कारण रहे, जहां यूरोप के लोग नई जमीन की तलाश में अमरीका पहुंचे, वहीं अफ्रीकी मूल के लोगों का अमरीका पहुंचने का जरिया दासप्रथा बनी। अमरीका में बसे भारतीय मूल के लोग उन बड़े समूह में से एक हैं, जो एक विकसित देश की समृद्धि से आकर्षित होकर वहां पहुंचने लगे। भारतीयों ने आजादी से भी पूर्व ही अमरीका की ओर रुख करना शुरू कर दिया था। वर्ष 2000 के होते-होते अमरीका में भारतीयों की जनसंख्या करीब 18 लाख पहुंच चुकी थी, जो आज बढ़कर 50 लाख से भी ज्यादा है, यह आंकड़ा अमरीकी जनसंख्या का करीब 1.5 प्रतिशत है। अपनी लगन व निष्ठा से भारतीय मूल के लोगों ने आज राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी अमरीका में विशेष स्थान बनाया है, परंतु अमरीका जाकर वहां स्थापित होने तक का यह सफर इतना आसान नहीं रहा है। भारतीयों को अमरीका प्रवासन की शुरुआत से ही अपेक्षा के विपरीत कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, फिर चाहे वो नस्लभेद हो या अमरीका की नागरिकता लेने की चुनौती। भारतीयों द्वारा अमरीका के प्रति निष्ठा साबित करने और उस जमीन पर अपना अधिकार हासिल करने के लिए कई सामाजिक आंदोलनों से होकर गुजरना पड़ा है व लंबी व थकाऊ कानूनी लड़ाई भी लडऩी पड़ी। जब 1923 में अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने भारतीयों के गैर-श्वेत होने के कारण एक ऐसा फैसला दिया, जिससे मिली हुई नागरिकता तो छिन ही गई, साथ ही उन्हें नागरिकता के लिए आवेदन करने के योग्य भी नहीं माना। इस नस्लीय निर्णय के आगे लोगों ने हार नहीं मानी और लगातार लड़ाई लड़ते रहने से 1946 में उनकी मेहनत रंग लाई, जहां अनेक भारतीय नागरिकों को नागरिकता मिली।
बमुश्किल मिली नागरिकता
इतना होने के बावजूद भी शिक्षा, काम व आवास को लेकर लगातार नस्लीय भेदभाव व उत्पीडऩ का शिकार होते रहे, उन्हें कम वेतन तथा उस तरह की नौकरियां दी जाती थीं, जिन्हें अन्य समूहों द्वारा नहीं किया जाता था। 19वीं सदी के आखिरी दौर में भारतीयों का अमरीका में प्रवासन का प्रारंभिक दौर शुरू हुआ। भगवत सिंह थिंड, दलीप सिंह सौंध और खासकर कला बागई (जो मदर इंडिया के नाम से प्रसिद्ध हुई और जिनके प्रयासों से प्रारंभिक दौर में अनेक लोगों को नागरिकता मिली), उन नामों में से हैं जिनका भारतीयों को अमरीका में पहचान दिलाने में एक बड़ा योगदान रहा है। शुरुआती दौर में अमरीकी कहलवाने के लिए न केवल भारतीय बल्कि सभी मूल के लोगों को अमरीकी संस्कृति को प्राथमिकता देनी ही थी, वे अमरीकी समाज में एकीकृत होने की कोशिश करते रहे। जैसे-जैसे समय बीता तो न केवल भारतीयों के संख्या बल में वृद्धि हुई बल्कि विकास में भी भागीदारी बढऩे लगी, जिससे भारतीय संस्कृति को अपनाने का आत्मविश्वास भी बढऩे लगा। जहां प्रारंभ में उन्हें अपनी भाषा रीति-रिवाज व परंपराओं को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ा वहीं आज वे मुखर होकर अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान बना चुके हैं। वैसे तो अमरीका में प्रवासी भारतीयों के आपस में तालमेल के लिए भारतीय होना ही काफी है, परंतु अपनी पहचान बनाए रखने के लिए कई धार्मिक, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बना रखे हैं, अपने देश की जड़ों से जुड़े रहने में भारतीय खानपान की भी अहम भूमिका है। साथ ही सोशल मीडिया के माध्यम- वॉट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम व टेलीविजन धारावाहिकों की प्रमुख भूमिका है। इन संचार माध्यमों के उपयोग से विदेश में होने का अहसास ही नहीं होता। अब यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भारतीय समुदाय ने अमरीका में केवल आर्थिक भागीदारी ही नहीं बढ़ाई, बल्कि सांस्कृतिक समरसता का एक नया अध्याय भी रचा है जो संघर्ष, समर्पण और स्वाभिमान का प्रतीक बन चुका है।
बमुश्किल मिली नागरिकता
हाल में अमरीका की एक प्रतिष्ठित संस्था ‘यू-गोव’ द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक आज अमरीका में जन्मे करीब 86 प्रतिशत भारतीय मूल के लोग भारतीय संस्कृति को अपनी परवरिश का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं, यही आंकड़ा 2020 तक 70 प्रतिशत ही था। इसी शोध के अनुसार करीब 50 प्रतिशत अमरीकी-भारतीयों का यह भी कहना है कि पिछले एक वर्ष से उनके प्रति नस्लभेद का भाव भी बढ़ा है, विशेषकर मुस्लिम समुदाय के प्रति यह भाव ज्यादा देखा गया जा रहा है। भारतीय मूल को गत वर्षों में मिली राजनीतिक सफलताएं, सामाजिक पहचान और आर्थिक संबल संभवत: उन कारणों में से हैं, जिसने उन्हें यह आत्मविश्वास दिया कि अमरीकी नागरिकता के बावजूद वे भारतीय संस्कृति को खुलकर गौरव के साथ अपना सकें। वर्तमान में अमरीकी कांग्रेस (संसद) में छह भारतीय सदस्य चुनाव जीतकर पहुंचे हैं, जो कि अब तक के इतिहास की सबसे अधिक संख्या है, और पूर्व उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भारतीय पृष्ठभूमि भी जगजाहिर है। भारतीय मूल के संख्या बल को आज अमरीका के लिए किसी भी रूप में नजरअंदाज कर पाना लगभग असंभव है फिर चाहे वो राजनीतिक हो या आर्थिक।