
बढ़ते प्रदूषण व खानपान के कारण बच्चों में भी अस्थमा हो रहा है। यह चिंता का विषय है। अस्थमा को दूर करने के लिए योग बहुत कारगर है। पिछले 30 साल से 5 लाख से ज्यादा बच्चों को योग की शिक्षा दी जा रही है।
आज डॉक्टर्स डे है। इस मौके पर पत्रिका ने छत्तीसगढ़ के दो पद्मश्री अवार्डी बाल एवं शिशु रोग विशेषज्ञ रायपुर के डॉ. एटी दाबके व राजनांदगांव के डॉ. पुखराज बाफना से बात कर जाना कि आखिर उन्हें ये अवार्ड क्यों दिया गया है? डॉ. दाबके ने विलुप्त होती जनजाति के बच्चों की सेहत पर अध्ययन किया। वहीं डॉ. बाफना ने अस्थमा पर योग का प्रभाव व एक किताब लिखी है। दोनों ही सीनियर डॉक्टरों ने पत्रिका के लिए लिखा और बताया कि उनका सफर कैसे रहा और पद्मश्री अवार्ड तक कैसे पहुंचे।
बढ़ते प्रदूषण व खानपान के कारण बच्चों में भी अस्थमा हो रहा है। यह चिंता का विषय है। अस्थमा को दूर करने के लिए योग बहुत कारगर है। पिछले 30 साल से 5 लाख से ज्यादा बच्चों को योग की शिक्षा दी जा रही है। कई स्टडी में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि योग से अस्थमा ठीक होता है। कई बच्चे इससे स्वस्थ हुए हैं। मेरी पहली किताब स्टेटस ऑफ ट्राइबल चाइल्ड हैल्थ इन इंडिया प्रकाशित हो चुकी है। इस किताब को कई स्कूलों व कॉलेजों में पढ़ाया जा रही है। जनरल हैल्थ पर पिछले 53 साल से एक कॉलम लिख रहा हूं, जो अब भी पहले की तरह पढ़ा जा रहा है।
इन तीनों विश्व रेकाॅर्ड के लिए 2011 में पद्मश्री पुरस्कार मिला है। पद्मश्री अवार्ड मिलना भी किसी कहानी की तरह रहा। पहले कलेक्टर के माध्यम से नामांकन भेजा जाता था। वहां के क्लर्क ने कहा कि समय निकल चुका है। इसके बाद तब के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से मिलने पहुंचे तो पता चला कि एक घंटे पहले ही दिल्ली नाम भेजा जा चुका है। एक आईएएस से मिलने कहा गया तो उन्होंने कहा कि कुछ नहीं हो सकता।
इसके बाद उन्होंने खुद डाक से गृह मंत्रालय नामांकन भेजा और तीनों विश्व रेकाॅर्ड को देखते हुए उन्हें पद्मश्री अवार्ड के लिए चुन लिया गया। हालांकि उन्हें लग रहा था कि वे अवार्ड के लिए फिट बैठेंगे कि नहीं, लेकिन काम को देखकर लग रहा था कि उन्हें यह अवार्ड जरूर मिलेगा और ऐसा हुआ भी। वे लंबे समय से किशोर बच्चों के हैल्थ पर काम कर रहे हैं।
(पद्मश्री अवार्डी पीडियाट्रिशियन डॉ. पुखराज बाफना, राजनांदगांव)
पहाड़ी कोरवा, कमार व अन्य विलुप्त हो रही जनजातियों के बच्चों में स्वास्थ्यगत परेशानी चिंता का विषय रहा है। 2003 तक नेहरू मेडिकल कॉलेज के पीडियाट्रिक विभाग के एचओडी व डीन के रूप में सेवाएं दीं। तब पीजी छात्रों की थीसिस में इन जनजातियों के स्वास्थ्य पर स्टडी की। छात्रों के साथ स्वयं सरगुजा, बगीचा, अबूझमाड़ के जंगलों में गया। बच्चों के स्वास्थ्य को देखा तो लगा कि ये सामान्य इलाकों की तुलना में काफी कमजोर है। ज्यादातर बच्चों में कुपोषण देखने को मिला, क्योंकि जन्म के समय इनका वजन काफी कम था। कुछ बच्चों का वजन एक किलोग्राम से कम था। तब पता चला कि वहां शत-प्रतिशत डिलीवरी घरों में होती है।
आसपास कोई डॉक्टर भी नहीं था। अस्पताल भी नहीं थे। ऐसे में कभी जन्म लेते ही बच्चों की मौत भी हो जाती थी। इनके घर भी आसपास के बजाए जंगल में दूर-दूर होते थे। हर साल एक पीजी छात्र को विलुप्त जनजातियों पर थीसिस करने को कहा जाता था। थीसिस में ये बात सामने आई कि उन्हें डॉक्टरों के इलाज की जरूरत है। पौष्टिक चीजें भी चाहिए, जिससे उनकी सेहत बनी रहे।
वे जंगल व आसपास के बाजार में मिलने वाली चीजों को खा रहे थे। पद्मश्री अवार्ड मिलेगा, इसकी उम्मीद भी नहीं थी। एक मीटिंग में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उनसे कहा कि तुम्हारा नाम पद्मश्री अवार्ड के लिए भेज दिया है, तब उन्हें पता चला कि उनका नामांकन किया गया है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अद्वितीय काम के लिए 2004 में उन्हें पद्मश्री अवार्ड से नवाजा। वे अभी दो साल से इंदौर में रह रहे हैं।
(पद्मश्री अवार्डी पीडियाट्रिशियन रायपुर निवासी डॉ. एटी दाबके पं. जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में एचओडी, डीन, डीएमई व हैल्थ साइंस विवि के कुलपति रह चुके हैं।)