पिछले वर्ष फरवरी माह में मैं जब पाकिस्तान में था, तब वहां की एक सुप्रसिद्ध शायरा ने अपनी एक कविता सुनाई थी, जिसमें वे कहती हैं कि हम पाकिस्तानियों को बहुत अफसोस है कि आप हिदुस्तानी हमारे जैसे होते जा रहे होँ पिछले कई दिनों से हमारी संसद में जो हो रहा है, उसे देखकर, सुनकर और पढ़कर न केवल पाकिस्तानी, बल्कि एशिया और अफ्रीका में रहने वाले करोड़ों लोगों को भी अफसोस हो रहा होगा कि हम इतने क्यों गिर गए हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद जितने देश साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त हुए, उनमें भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत हुई हैं। कई नव स्वतंत्र देशों ने अपने यहां लोकतंत्र स्थापित किया था, पर उनमें से बहुसंख्यक देशों में यह व्यवस्था ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी। इस तरह के अनेक देशों में सता पर तानाशाहों ने कब्जा कर लिया, जिनमें पाकिस्तान, इंडोनेशिया, कांगो, म्यांमार, नाइजीरिया, घाना आदि शामिल हैं। हमारे पड़ौसी देश नेपाल में अभी तक लोकतंत्र की स्थिति अभी मजबूत नहीं है। आजादी के बाद स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना का निर्णय लिया। देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना का निर्णय लिया। देश के सभी वयस्कों को मताधिकार दिया गया। जब हमने सभी वयस्कों को मताधिकार देने का फैसला किया, तो उन देशों ने जहां लोकतंत्र फल-फूल रहा था, हमारा मजाक उड़ाया। हमारे देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत कई संगठनों ने कहा था कि निरक्षरों को मताधिकार देना बड़ी भूल है। जिस समय भारत आजाद हुआ था, यहां साक्षर पांच-दस प्रतिशत ही थे, पर ऐसे सभी लोगों की शंकाएं निर्मूल साबित हुईं। नेहरूजी के समय संसद व देश की विधानसभाओं का संचालन नियम कायदों से होता था। स्वयं नेहरू संसद का बहुत सम्मान करते थे। सत्र के प्रारंभ से लेकर प्रतिदिन वे संसद में उपस्थित रहते थे। उनके अतिरिक्त अन्य सांसद भी संसद के प्रति प्रतिबद्ध रहते थे और उसकी कार्यवारियों में बेहद संजीदगी से भाग लेते थे। 1967 से जब देश में बड़े पैमाने पर दल-बदल हुआ उसके बाद हमारी व्यवस्था में घुन लगना शुरू हुआ। 1967 में दलबदल की शुरूआत देश विरोधी पार्टियों ने की थी। मध्यप्रदेश समेत कई राज्यों की विधिवत चुनी गई सरकारों का तख्ता पलट दिया गया। उसी वर्ष से राजनीति में अनुशासनहीनता का प्रवेश हो गया। शनै:-शनै: यह रोग गंभीर होता गया और अब ऐसी स्थिति आ गई है कि चुनी हुई संसथाएं नियमों के अंतर्गत अपनी गतिविधियों का संचालन नहीं कर पा रही हैैं। संसदीय लोकतंत्र को गवर्नमेंट वाई डॉयलाग कहते हैं। यानी, संसदीय लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है, जिसका संचालन बातचीत से होता है, पर अब ऐसी परिस्थितियां बनती जा रही हैं, जिनमें बातचीत लगभग असंभव हो गई है। पिछले दिनों यही हुआ। तेलंगाना के प्रश्र पर संसद में बहस लगभग असंभव हो गई। लोकसभा में ऐसी स्थिति बनी कि विधयेक पेश करना ही मुश्किल हो गया। लोकसभा में ऐसा दृश्य निर्मित हुआ, जैसे सड़कों पर परस्पर विरोधी दो गुंडा गिरोह करते हैं। विधानसभाओं में ऐसे दृश्य तो आए दिन देखने को मिलते हैं, पर संसद में ऐसे शर्मनाक दृश्य पहली बार देखने को मिले। वैसे, इसके पहले भी निंदनीय कृत्य संसद में हुए हैं, पर वे इतने गंभीर नहीं थे। एक दिन राज्यसभा में एक सदस्य ने कुछ कागज फाड़कर सभापति उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी पर फेंक दिए थे। यदि उस दिन संबंधित सदस्य को कड़ी सजा दे दी जाती, तो शायद मिर्च फेंकने वाली घटना लोकसभा में नहीं घटती। यदि इस तरह की घटनाओं को रोकना है, तो ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए कि जो भी सदस्य ऐसी हरकत करेगा, उसकी न सिर्फ सदस्यता समाप्त की जाएगी, बल्कि पूर्व सांसद या विधायक होने के नाते जो भी सुविधाएं उसे मिलती हैं, उसको उनसे भी वंचित कर दिया जाएगा। इस तरह की सजा देने का अधिकार अध्यक्ष को होना चाहिए और इसका भी प्रावधान होना चाहिए कि ऐसी सजा के संबंध में संसद या विधानसभा की राय नहीं ली जाएगी। इस बात का भी प्रावधान किया जाना चाहिए कि ऐसे मामलों की अपील न्यायपालिका में नहीं की जा सकेगी। जब तक ऐसे सख्त नियम नहीं बनाए जाएंगे, संसद विधानसभाओं में ऐसे अशोभनीय दृश्य उपस्थित होते रहेंगे। जिस मामले को लेकर संसद में हिंसक दृश्य उपस्थित हुए उसका संबंध एक नए राज्य के निर्माण से था। आजादी के बाद नए राज्यों का गठन राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों पर 1956 में हुआ था। नए राज्यों के निर्माण का मुख्य आधार भाषा थी। इस आधार के बावजूद महाराष्ट्र और गुजरात को एक ही राज्य रहने दिया गया। दोनों मिल जुले राज्यों को बंबई प्रेसीडेंसी कहते थे। मराठी और गुजराती सशक्त भाषाएं हैं, तब महाराष्ट्र और गुजराती को पृथक राज्य नहीं बनाना बेईमानी थी।