महात्मा गांधी अदï्भुत थे। अद्वितीय थे। विलक्षण थे। शायद यही वजह है है कि उनके एक प्रतिष्ठित समकालीन वैज्ञानिक को कहना पड़ा कि भावी पीढिय़ां मुश्किल से यकीन करेंगी कि हाड़-मांस का कोई ऐसा इंसान सचमुच इस धरती पर धूमता था। यद्यपि हमने उनसे अनुग्रहीत व सम्मोहित होकर उन्हें राष्ट्रपिता कहा, लेकिन आज हमारे बीच ऐसे लोग भी हैं, जो उन्हें प्रासंगिक नहीं मानते। मोटे तौर पर आज हमारे बीच दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं, जो गांधीजी की मूर्तिपूजा करके दुकानदारी कर रहे हैं और दूसरे वे हैं, जो उनका मूर्तिभंजन भले ही न करते हों, लेकिन उन्हें अप्रासंगिक मानकर निरस्त जरूर कर देते हैं। कालजयी महात्मागांधी को लेकर इस दुविधापूर्ण वैचारिक संक्रांति के युग में हमारा ध्यान स्वभावत: देश के एक शीर्ष वैज्ञानिक डॉ. रघुनाथ मशेलकर की ओर जाता है, जिन्हें इसी गणतंत्र दिवस पर पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत किया गया है। एक वैज्ञानिक होने के नाते उन्होंने गांधीजी को विज्ञान की कसौटी पर कसकर इस महान विभूति की विरासत को जानने-समझने का विनम्र प्रयास किया। उन्होंने खुद से सवाल किया कि भारत ने बीसवीं सदी मेें विश्व को क्या सर्वोत्तम उपहार दिया? और तभी उन्हें आइंसटीन का उपर्युक्त कथन याद आ गया। फिर उनके मन में एक और सवाल आया कि 21वीं सदी में भारत का सर्वोत्कृष्ट उपहार क्या हो सकता है, भीषण आर्थिक और पर्यावरणीय विषमताओं से ग्रसित इस दुनिया को? इस विचारोत्प्रेरक क्षण में उन्हें महात्मा गांधी के दो आर्षवाक्य याद आ गए।
पहला, लोक कल्याण के लिए जो भी वैज्ञानिक आविष्कार किए गए हैं, उनमें से प्रत्येक मेरे लिए अति महत्वपूर्ण हैं। दूसरा, यह धरती सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए काफी है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नाकाफी। गांधीजी का पहला कथन सामथ्र्य के बारे में है, जबकि दूसरा स्वयंपोषण के विषय में।
यथार्थत: 64 साल पहले महात्मा गांधी के मन में संभवत: यही दो कसौटियां रही होंगी- एक विज्ञान हमें कितना समर्थ बनाता है और दो, यह सामथ्र्य कितनी स्वयंपोषित यानी टिकाऊ है? इसी को अंग्रेजी में अफोर्डेबिलिटी और सस्टेनेबिलिटी कहा गया है। गांधीजी की स्वयं की जीवन शैली भी संभवत: इन्हीं दो बातों पर आधारित थी। स्थानीय न्यूनतम संसाधनों से अधिकतम का कल्याण करो, यही थी गांधीजी की सामाजिक-आर्थिक अवधारणा, जिसे डॉ. रघुनाथ मशेलकर गांधीवादी इंजीनियरिंग कहते हैं। उद्योग जगत का बुनियादी लक्ष्य न्यूनतम रिसोर्स से अधिकतम पराफारमेंस और अधिकतम प्रॉफिट रहता है। गांधीवादी अंभियांत्रिकी में ज्यादा मुनाफे का तत्व नहीं है। यदि हम गांधी-सागर में गहरी डुबकी लगाएं तो हमें उनके कुछ ऐसे विचार मुक्ता मिलेंगे जो आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग में गांधी की प्रासंगिकता को अपरिहार्य सिद्ध कर देंगे। जो लोग इंटरनेट युग में गांधी के चरखे का संगीत सुनने में असमर्थ हैं, उन्हें यह लगना स्वाभाविक है कि गांधी मशीनरी के खिलाफ थे। तब पुनर्जाग्रत भारत को गांधी की पुनर्खोज करना होगी। यद्यपि गांधी की त्रासद हतया के समय मैं पंद्रह साल का था, लेकिन मुझ उनके दर्शन का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ। तभी मुझे 1953 में वियोगीहरि के आदेश से एक गांधी ग्रंथावली के अनुवाद का काम मिला। उसमें एक वाक्य था- मेरी शरीर स्वयं प्रभु निर्मित अति जटिल मशीनरी है, फिर भला मैं यंत्रीकरण का विरोध कैसे कर सकता हूं। फिर उन्होंने यंग इंडिया में लिखा पवित्र चरखा स्वयं में एक मशीन ही तो है। यह समझने की बात है कि जो शख्सियत जीवन भर सत्यान्वेषी रही हो और जिसका जीवन ही सत्य की खोज का पर्याय रहा हो, वह भला उस विज्ञान का विरोध कैसे कर सकता है, जिसका आधार ही अन्वेषण और आविष्कार है?गांधीजी पश्चिमी देशों के उद्योगीकरण के विरोधी थे, क्योंकि उसमें नैतिकता का घोर अभाव था। पश्चिम की उद्योगिक क्रांति, समाजवाद, साम्यवाद आदि अनेक अवधारणाएं वहीं से तो निकली हैं। गांधीजी का चरखा यंत्रीकरण का विरोध न होकर एक शोषणविहीन और समतामूलक आर्थिकी का प्रतीक था।