हम आजाद हुए, संतुष्टि देने वाली अनेक उपलब्धियां हांसिल कीं, पर व्याकुल करने वाली विसंगतियां भी कम नहीं हैं। सबसे बड़ी विसंगति राष्ट्रभाषा हिन्दी के संर्दीा में हैं। हमारी नई पीढ़ी अपनी ही मातृभाषा हिन्दी और संस्कृति परंपरा से दूर होती जा रही है। वह वन, टू, थ्री जानती है, एक, दो, तीन नहीं जानती भी है तो लिखना नहीं आता। वह मां-बाप, दादा-दादी, काका-काकी, मामा-मामी पिता को डैडी और हर गैर सरोकारी को अंकल कहती है, चाहे वे किसी उम्र के हों। हिन्दी में बोलना पिछड़ापन है। हम हिन्दी भी बोलते हैं तो इंगलिश रूप में। आधी हिन्दी आधी अंग्रेजी साठ के करीब हमारी स्वतंत्रता पहुंच रही है, परंतु अपनी भाषा में शासन तंत्र चलाने में हमें लाज आती है और अंग्रेजी में हम गौरवान्वित होते हैं। हालांकि विविधताएं हमारे देश का विशेषण हैं। प्रकृति प्रदत्त और संस्कृतियों के मिश्रण से उपजी विविधाताओं को यह देश आत्मसात करता गया, किंतु विकृतियों से उपजी आधुनिक विचित्रताएं गणतंत्र को आकुल कर रही हैं। इससे यह गणतंत्र अजूबा बनता है। यहां हर तरह के लोग रहते हैं और सदियों से रहते हैं उनकी अनेक भाषाएं हैं, बोलियां हैं, धर्म हैं, संस्कृति हैं। इन गणों की बहुविध भाषाओं, धर्मो, संस्कृतियों में सदियों से समानता सामंजस्य कायम रहा। जब देश गुलाम था तब आपसी सामंजस्य देखते बनता था। भारतीय भाषाओं के बींच कोई भेद-भाव। आज के वोट बटोरने वाले नेताओं की तरह कोई दिखावा नहीं था। पर आज जब हम स्वतंत्र हैं, विकास की ओर बढ़ रहे हैं तो हमारे सारे सामंजस्य तार-तार हो रहे हैं। भाई चारे को अपनी ही राजनीति चर गई है। जो वन्दे मातरम राष्ट्रगीत है। आजादी के दीवाने जिसको गा-गाकर हंसते-हंसते बलिवेदी पर चढ़ जाते थे, आज उसी गीत को गाने से परहेज बरता जा रहा है।
बापू ने हिन्दी को आजादी के आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बनाया था। जागरण का जरिया बनाया था। उनका स्पष्ट मत था कि यदि हमें अंग्रेजों से लडऩा है तो उसकी अंग्रेजी के विरूद्ध हिन्दी को खड़ा करना होगा। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देनी होगी। जन-जन तक पहुंचने के लिए, उन्हें जगाने के लिए उनकी ही भाषा में बात करनी होगी, तभी हम आजादी पर सकते हैं, आजादी को अर्थ दे सकते हैं।
बापू किसी भाषा को न खराब समझते न उसके वे शत्रु थे। उनका स्पष्ट मत था कि, युवक अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएं खूब पढें़। लेकिन, उनमें मैं आशा करूगा कि अपने ज्ञान का प्रसाद भारत को और सारे संसार को उसी तरह प्रदान करेंगे, जैसे बोस, राय और स्वयं रवीन्द्र नाथ ने प्रदान किया है। मगर मैं यह हरगिज नहीं चाहूंगा कि कोई भी हन्दुसतानी अपनी मातृभाषा को भूल जाये, या उसकी उपेक्षा करे था उसे देख कर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊंचा चिंतन नहीं कर सकता है। भाषा केवल शब्दों का संगठन या जखीरा नहीं, वह हमारी मानसिकता, संस्कृति, सोच-सरोकार का परिचायक भी है। कम से कम हम भारतीयों के मन में गांधी जी ने जातिवाद, वर्गवाद शोषक और शोषित के भेदभाव को मिटाने के लिए कई स्तर पर आंदोलन आरंभ किया था। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी सभ्यता का विरोध किया था। अंग्रेजी सभ्यता को उन्होंने चंाडाल सभ्यता की संज्ञा दी थी।

