लोकतंत्र में चुनाव लड़ना जरूरी है, लेकिन यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि ईमानदारी के बूते चुनाव लडऩा आसान नहीं है। चुनावों में कालेधन का इस्तेमाल बड़ी समस्या है और इसे रोक पाना असंभव सा हो गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस देश में जब तक काला धन रहेगा, चुनाव उससे प्रभावित होंगे ही होंगे। इसलिए कई बार यह बहस भी छिड़ी है कि देश की चुनावी व्यवस्था को सुधारने और कालेधन के इस्तेमाल पर अंकुश के लिए राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को चुनाव लडऩे के लिए सरकारी कोष से धन मिलना चाहिए या नहीं?
बहस इतनी हो चुकी है कि यह मुद्दा विवादास्पद करार हो चुका है। अतीत में कई बार बनी समितियों ने बहुत सावधानी के साथ स्टेट फंडिंग लागू करने की सिफारिश जरूर की, लेकिन राजनीतिक दलों को धनराशि किस पैमाने पर दी जाए, इसको लेकर सहमति नहीं बन सकी। यूं तो दुनिया के कुछ देशों में आंशिक रूप से इस व्यवस्था पर अमल करने की कोशिश हुई, लेकिन शतप्रतिशत स्टेट फंडिंग किसी भी देश में नहीं है। सरकार चुनाव सुधारों से जुड़े इस अहम मुद्दे पर विधि आयोग से सुझाव मंगा चुकी है। आयोग पूर्व में इस बारे में अपना परामर्श-पत्र तैयार करने के साथ सभी मान्यता प्राप्त दलों की राय भी ले चुका है।
चुनावों में काला धन बड़ी समस्या
देश में चुनावों के दौरान हजारों करोड़ रुपए का खर्चा होता है। सीधे तौर पर चुनाव प्रचार महंगा होता जा रहा है। आयोग ने जो चुनाव खर्च सीमा तय कर रखी है, प्रत्याशी उससे कई गुना अधिक खर्च करते है। कागजों में निर्धारित चुनाव खर्च ही दिखाया जाता है। चुनाव में खर्च धनराशि में एक बड़ा हिस्सा कालेधन का भी होता है। यह भी सही है कि कालेधन के इस्तेमाल से सभी उम्मीदवारों को समान तरह के अवसर नहीं मिलते। देर-सवेर भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलता है।
क्या है स्टेट फंडिंग और इसके पीछे का तर्क
स्टेट फंडिंग का आशय चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों को सरकार की ओर से धन उपलब्ध कराए जाने से है। सरकारी कोष से चुनाव लडऩे के लिए धन मिलने के बाद राजनीतिक दल या उम्मीदवार को अन्य माध्यमों से प्राप्त धन और संसाधनों का इस्तेमाल की मनाही होगी। इस व्यवस्था के पक्षधरों का मानना है कि इससे राजनीतिक दलों को चुनाव खर्च के लिए भ्रष्ट तरीके से धन जुटाने की नौबत नहीं आएगी। कॉरपोरेट और काले धन पर राजनीतिक दलों की निर्भरता कम होगी।
कैसे लागू हो यह व्यवस्था
जानकारों का मानना है कि स्टेट फंडिंग के लिए उचित पैमाना बनाना जरूरी है। सबको रेवड़ी की तरह समान रूप से सरकारी कोष से धनराशि देना उचित नहीं है। राजनीतिक दलों के प्राप्त मतों के आधार पर फंडिंग की व्यवस्था ज्यादा न्यायसंगत होगी। राजनीतिक दल या उम्मीदवार को जितने मत प्राप्त हुए हैं, उनके आधार पर फंडिंग की जानी चाहिए। प्रति वोट धनराशि का मानक भी बनाया जा सकता है।
राजनीतिक दल दे चुके हैं ये सुझाव
स्टेट फंडिंग को लेकर आयोग को कई राजनीतिक दल पूर्व में सुझाव दे चुके हैं। यह कहा गया है कि राजनीति में योग्य को प्रोत्साहन मिले इसके स्टेट फंडिंग होनी चाहिए। चुनाव के दौरान सरकारी स्तर पर डीजल, पेट्रोल, प्रिंटिंग, संचार उपकरण, लाउडस्पीकर जैसी चुनाव प्रचार में सहायक सामग्रियों को उपलब्ध कराने के साथ ही पोलिंग एजेंटों के लिए भत्ते और भोजन की व्यवस्था का भी सुझाव दिया। आरक्षित सीटों पर चुनाव लडऩे वाले कमजोर प्रत्याशियों को राजकोष से अतिरिक्त धन देने की वकालत की गई ताकि वे चुनाव प्रचार में पिछड़े नहीं।
धरातल पर उतारने की राह में रोड़े भी बहुत
राज्य वित्तपोषित चुनाव व्यवस्था को धरातल पर उतारने की राह में रोड़े भी बहुत हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि सरकारी कोष से किस राजनीतिक दल या प्रत्याशी को कितना फंड प्रदान किया जाए। गंभीर और अगंभीर प्रत्याशियों में कैसे अंतर किया जाए। क्योंकि सरकारी फंडिग की चाह में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या में इजाफा हो सकता है। देश में राजनीतिक दलों के पंजीकरण की रफ्तार बढ़ जाएगी, क्योंकि सबका लक्ष्य चुनाव लडऩे से ज्यादा सरकारी धन हासिल करने पर होगा। अगर सिर्फ राजनीतिक दलों को धनराशि मिलेगी तो यह उन निर्दलीय प्रत्याशियों से अन्याय होगा, जो गंभीरता से चुनाव मैदान में उतरते हैं।
इस मुद्दे पर आखिर आयोगों ने क्या कहा
■ इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998): राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को सरकारी धनराशि दिए जाने की वकालत की। समिति ने संवैधानिक, विधिक और सार्वजनिक हित कारणों से राज्य वित्तपोषण का समर्थन किया। कहा गया कि इससे निष्पक्ष और एकसमान अवसर प्रदान होंगे।
■ भारतीय विधि आयोगः (1999) चुनाव मेंसशर्त स्टेट फंडिंग की सिफारिश की। आयोग ने कहा कि अगर राजनीतिक दल अन्य स्रोतों से धन नहीं लेते हैं, तो स्टेट फंडिंग की सुविधा लागू करना अच्छा कदम हो सकता है।
क्या है पक्ष में दलील
■ चुनाव में कालेधन पर अंकुश लगेगा।
■ बड़े निजी घरानों पर निर्भरता खत्म होगी, सभी राजनीतिक दलों को चुनाव में समान अवसर मिलेगा।
■ चुनावी सिस्टम में भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश लगेगा। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा।
■ निजी दानदाताओं पर निर्भरता कम होने से निर्वाचित प्रतिनिधि बिना दबाव के कार्य कर सकेंगे। राजनीतिक दलों को वित्तीय स्थिरता मिलेगी।
ये हैं विरोध में तर्क
■ सरकारी फंड लेने के लिए राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन की होड़ होगी।
■ करदाताओं पर अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा। इच्छा के विपरीत उनके टैक्स को चुनाव में देने से करदाताओं में असंतोष का खतरा।
■ इससे राजनीतिक दल सार्वजनिक धन पर अत्यधिक निर्भर बन सकते हैं। वे चंदे के लिए नए वैध तरीके नहीं खोजेंगे। धन के समान वितरण और प्रभावी निगरानी तंत्र कायम करने की चुनौती।