Wednesday, September 24

सबलगढ़-जौरा विधानसभा क्षेत्र: आदिवासी आज भी बेहाल, पीने का पानी सबसे बड़ा मुद्दा

मुरैना के सबलगढ़ और जौरा विधानसभा क्षेत्र चार अन्य विधानसभा सीटों से अलग प्रकृति के हैं। आदिवासी बाहुल्य वाले इलाके। इन क्षेत्रों में क्या मुद्दा पनप रहा है और आदिवासियों का मन किस ओर जा रहा है, इसका अहसास लेने के लिए बाइक से रवाना हुआ।

आईटीआई डिप्लोमा पर नौकरी नहीं है, नौकरी फिर भी नहीं मिली

इसी गांव के सुरेश आदिवासी ने कहा, बेरखेड़ा पंचायत बहेरी, छापर, गठाने, सिंगारदे, सिंगारदे खालसा आदि पुरा-पट्टे हैं, जिनमें 400 आदिवासी परिवार हैं। पंचायत में सिर्फ एक मिडिल स्कूल है। हाईस्कूल 20 किमी दूर गोबरा, हायर सेकंडरी स्कूल 32 किमी दूर रामपुरकलां में हैं। कॉलेज की सुविधा 40 से 45 किमी दूर सबलगढ़, कैलारस में है। गांव के प्रताप, सुघर सिंह, नरेंद्र सहित आधा दर्जन युवाओं ने इंटर पास के बाद आईटीआई भी कर ली है, लेकिन वे बेरोजगार घूम रहे हैं।

खटिया पर रखकर इलाज के लिए ले जाने की मजबूरी

सिंगारदे से 8 किमी दूर पथरीली चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर भूल-भुलैया सफर करते हुए खालसा सिंगारदे गांव का सफर डरा रहा था। गांव के अंदर घास-फूस से बने छप्पर व पेड़ की छांव में ग्रामीणों के झुंड में बैठे सामंत कुशवाह (66) से पूछा, कोई तकलीफ है क्या? सामंत तपाक से बोले-20 साल से सड़क मांग रहे हैं। बरसात में रास्ता बंद हो जाता है। पिछले साल शकुंतला के बच्चा होना था। दर्द से कराहने लगी तो गांव के लड़के खटिया पर लेटाकर कंधे पर रखकर अस्पताल ले गए। एंबुलेंस तो छोड़ो ट्रैक्टर भी कीचड़ में फंस जाता है।

शक्कर कारखाने के लिए मशहूर कैलारस उदासीन

इसके बाद जौरा विधानसभा क्षेत्र का जायजा लेने के लिए निकला। किसी समय शक्कर कारखाने के लिए मशहूर रहे कैलारस की स्थिति दयनीय नजर आई। यह उपेक्षित महसूस हुआ। कैलारस से पहाडग़ढ़ तक टू-लेन रोड बनाने का काम चल रहा है, जो पहाडग़ढ़ से आगे सहसराम तक जुड़ चुका है। इससे सीधे ग्वालियर, शिवपुरी तक पहुंच सकेंगे। लेकिन हमारा पड़ाव पहाडग़ढ़ मुख्यालय तक था। बाइक से नीचे उतरते ही बस स्टैंड पर चाय की दुकान पर बैठे केदार (62) से पूछा अब तो सड़क बढिय़ा बन रही है। केदार बोले- सड़क तो बढिय़ा है, लेकिन 62 पंचायतों का मुख्यालय है। कागजों में तहसील घोषित है लेकिन तहसीलदार तो 25 किमी दूर जौरा में बैठता है। खड़रियापुरा, मरा, जड़ेरू, मानपुर, बहराई, बघेवर, निरार, कन्हार, धौंधा, गैतोली सहित 10-11 गांव में आदिवासी रहते हैं। भरी दोपहरी में जंगल में धौ की लकडिय़ां बीनते उन्हें देख लेना, समझ में आ जाएगा कि कितनी मुश्किल काट रहे हैं। पीने का पानी आज भी सबसे बड़ी चुनौती है। जल-जीवन मिशन की टंकी बन गई, पानी सप्लाई अब तक चालू नाने भई।